पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५३९

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अष्टादश अध्याय यह संज्ञा पृषग्जन, यानदय के आर्य तथा सब बोधिसत्वों के लिए उपयुक्त है, क्योंकि इन सब सत्वों में विपाकभूत अन्याकृत धर्म होते हैं । किन्तु तथागतभूमि में इस संज्ञा का प्रयोग नहीं होता। अष्टम विज्ञान विमल-विज्ञान है, क्योंकि यह अति विशुद्ध और अनासव धर्मों का आश्रय है। यह नाम केल तथागत-भूमि के लिए उपयुक्त है। वसुबन्धु केवल ना लय की व्यावृत्ति का उल्लेख करते हैं, क्योंकि संक्लेशालय के दोर गुरु होते हैं, क्योंकि दो सासव अवस्थाओं में से यह पहली अवस्था है जिनका आर्य प्रहाण करता है। अश्यम विज्ञान की दो अवस्थाओं में विशे। करना चाहिये। एक सासव अवस्था है, दूसरी अनास्रव । सानव को अा नय या विषाक कहते हैं । इसका व्यार पान ऊपर हो चुका है। अनासव एकान्तेन कुश न है । यह ५ सर्वग, ५ प्रतिनियत विषय और ११ कुराल चैत्त से संप्रयुक्त होता है । यह अकुरान और अनियत चेत्तो से संप्रयुक्त नहीं होता । यह सदा उपेक्षा वेदना से सहगत होता है। सर्व धर्म इसका विश्य है, क्योंकि श्रादर्श ज्ञान सर्व धर्म को आलं- बन बनाता है। श्रालय विज्ञान के प्रवर्तन को व्यावृत्त कर अर्थात् हेतु-फल-भाव और धर्मों के नित्य- प्रवाह को व्यावृत्त कर बोधिसत्व हेतु-प्रत्यय और धर्मों की क्रूरता से अपने को स्वतन्त्र करते हैं और यह केवन विमल-विज्ञान से होता है। अष्टम विज्ञान के पक्ष में प्रागम के प्रमाण और युक्तियों हीनयान में केले सात विज्ञान माने गए हैं। किन्तु शुश्रान-बांग दोनों यानों के अागम से तथा युक्ति से श्रथम-विज्ञान को सिद्ध करते हैं । महायान-पहायान के शास्त्रों में या तय की बड़ी महिमा है। महायानाभिधर्मसूत्र में कहा है कि श्रा नय-विज्ञान सूक्ष्म-रभार है और दही क्रिया से ही इसकी अभिव्यक्ति होती है। यह अनादिकालिक है और सब धर्मों का समाश्रय है । बीज-विज्ञान होने से यह हेतु (धातु) है । शक्तियों का अविच्छिन्न सन्तान होने से वह धर्मों का उत्पादन करता है। समाश्रय होने से यह आदान-विज्ञान है, क्योंकि यह बीजों का श्रादान करता है, और प्रत्युत्पन्न धर्मों का आश्रय है । इस विज्ञान के होने पर प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों होती है। इस विज्ञान के कारण ही प्रवृत्तिभागीय धर्मों का अादान होता है, और इसी के कारण निर्वाण का अधिगम मी होता है। वस्तुत: यही विज्ञान निवृत्ति के अनुकूल धर्मों का, निर्वाण के बीजों का, अादान करता है। सन्धिनिर्मोचन में कहा है कि आदान-विज्ञान गंभीर और सूक्ष्म है । वह सत्र बीजों को धारण करता है और प्रोध के समान प्रवर्तित होता है । इस भय से कि कहीं मूढ पुरुष इसमें आत्मा की कल्पना न करें, मैंने मूड़ पुरुषों के प्रात इसे प्रकाशित नहीं किया है। लंकावतार में भी श्रालय को 'श्रोष' कहा है, जिसका व्युच्छेद नहीं है और जो सदा प्रवर्तित होता है। अन्य निकायों के सूत्रों में भी छिपे तौर से श्रालय-विज्ञान को स्वीकार किया है । महामांधिक-निकाय के प्रागम में इसे मूल-विज्ञान कहते हैं। चक्षुर्विज्ञानादि को मूल की संज्ञा नहीं दी जा सकती। अालय-विज्ञान ही इन अन्य विद्वानों का मूल है।