पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५४

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पर अनिमेष या दिव्य-चतु का उदय होता है। इसी प्रकार दिव्य श्रोत्रादि तथा पंच अभिशाओं का लाम होता है । जब योगी चन्द्र-ए के मार्ग से मध्यमा में प्रवेश करते है, और प्राणायाम से शुद्ध होते हैं, तब बोधिसत्वगण उनका निरीक्षण करते हैं । धारणा के प्रभाव से प्राहक-चित्त या वनसत्त्व शून्यता-बिंबरूप प्राय का समावेश करते हैं। बिन्दु में धारणा का फल प्राण गतिशल्य हो एकाग्र होता है। तब विमल प्रभामंडल प्रकाशित होता है। रोम-कूप से पंचरश्मियों का निःसरण होता है । यह महारश्मि-रूप है । प्राय तया ग्राहक चित्त एक होने पर अक्षर-सुख होता है, यही समाधि है । समाधि के अायत्त होने पर अचल या निरावरणभाव पाता है। इस परमाक्षर शान को प्रभास्वर ज्ञान कहा जाता है। इसके द्वारा प्रावरण के सर्वथा निःशेष होने से सत्य-द्वय के एकीभाव होने पर प्रदय-भाव की प्रतिष्ठा होती है। साधक पूर्व वर्णित षडंगयोग के प्रथम अंग प्रत्याहार से धूमादि निमित्त आदि दस सानो का लाम करता है । यह अकल्पित विज्ञान-स्कन्ध है । इस अवस्था में विज्ञान-शूत्यताबिंब में प्रवृत्ति होती है। ध्यान में ये दस विज्ञान-विश्वविब दस प्रकार के विषय-विषयों के साथ एकीभूत होते हैं । इसे अक्षोभ्य-भाव कहा जाता है। इस समय शन्यता-बिंब का अवलोकन होता है। यही प्रज्ञा है । माव-ग्रहण तर्क है । उसका निश्चय विचार है । बिंब में आसक्ति प्रीति है। बिंब के साथ चित्त का एकीकरण सुख है । ये पाँच अंग है । पाँच प्रकार के प्राणायाम संस्कार स्कन्ध है। इस समय वाम तथा दक्षिण मंडल समरस हो बाते हैं। यह खण्डभाव है । इस स्थिति में उमय मार्ग का परिहार होता है, और मध्य मार्ग में प्रवेश होता है। यहीं से निरोध का सूत्रपात होता है। दस प्रकार की धारणाएँ वेदना-स्कन्ध है। नाभि से उम्णीषकमल पर्यन्त प्राण की गतियां और उणीव से नाभि तक पाँच श्रागतियां हैं। इस प्रकार धारणा दस हैं। इन्हें स्नपाणि कहा जाता है । मध्य नाड़ी में काम की चिन्तादि दस अवस्थाएँ अनुस्मृति कही जाती है । चिन्ता से लेकर तीन मूर्छा पर्यन्त दस दशाएँ अालंकारिक तथा वैष्णव साहित्यों में सुप्रसिद्ध है। वहां दसम दशा को मृत्यु नाम दिया गया है। यह भावों के विकास की दस अवस्याएँ है । बौद्ध-मत में ये अवस्थाएँ वज्रसत्वावस्था प्रास योगी के सत्व-विकास की योतक है। अनुस्मृति के प्रभाव से प्रकाश में चौडाली का दर्शन होता है। दस प्रकार की वायुओं के निरोध से समाधि भी दस प्रकार की है। समाधि से जेय तथा शान के अमेद होने पर प्रदर-सुख का उदय होता है, और उसी से शान-बिंब में पूर्ण समाधान हो जाता है। यह पडंग योग ही विश्वभर्ती कालचक्र का साधन है । मन्त्र-मार्ग के अनुसार बुखत्व-प्राप्ति के लिए यही मुख्य द्वार है। कालचक्र क्या है ? कालचक्र श्रदय, अक्षर परमतत्त्व का नामान्तर है। काल करुणा से भिन्न राज्यता की गति है। वृतिस्प शन्यता पद का अर्थ है। प्रकारान्तर से