पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बौदधर्म-दर्शन स्थविर और विभज्यवादी इसे 'भवांग-विज्ञान' कहते हैं । 'भव' 'धातुप्रय है, 'अंग' का अर्थ 'हे' है । अत: यह विशान धातुनय का हेतु है । एक श्रालय-विज्ञान ही जो सर्वगत और अम्युच्छिम है, यह विशान हो सकता है। 'बुद्धघोस' के अनुसार यह मवांग ही अंगुत्तर १, १० का 'प्रभास्वर-चित्त' है (अत्य- सालिनी, १४०)। महीशासक श्रालय को 'संसारकोटिनिष्ठस्कन्ध (कोश, ६।१२ ) कहते हैं । यह वह स्कन्ध-धर्म है, जो संसार के अपरान्त तक अवस्थान करता है ( व्युत्पत्ति में अपरान्तकोटिनिष्ठ है)। वस्तुत: प्रालय-विज्ञान का अवस्थान वोपम पर्यन्त है | रूप का उपरम श्रारूप्य में होता है। प्रालय-विज्ञान के व्यतिरिक्त अन्य सर्व विज्ञान का उपरम असंजिदेवों में तथा अन्यत्र होता है। विप्रयुक्त संस्कार रूप तया चित्त-वैत्त से पृथक् नहीं है। अतः जिस कन्ध का उल्लेख महीशासक करते हैं, वह प्रालय-विज्ञान के अतिरिक्त कुछ और नहीं हो सकता । सर्वास्तिवादियों के एकोत्तरागम में भी 'श्रालय का उल्लेख है। इस सूत्र में कहा है कि सत्व श्रालय में रत होते हैं, उसमें उनको संमोद होता है ( अंगुत्तर, २६१३१ श्रालयारामा मिक्खवे पजा श्रालयरता प्रालयस म्]मुदिता )। इस वचन से स्पष्ट है कि प्रालय राग का बालंबन है। इसमें सत्वों का तबतक प्रासंग होता है जबतक वोपम समाधि द्वारा श्रालय का विच्छेद नहीं होता। इसे वह अपनी आध्यात्मिक बाल्मा अवधारित करते हैं | कामवीतराग योगी और आर्य में भी श्रात्मस्नेह होता है, यद्यपि वह पंच-कामगुणों से विरक्त होते हैं। पृथग्जन और शैक्ष दोनों का अभिवंग श्रालय-विशान में होता है, चाहे अन्य उपादान- स्कन्धों में उनकी रति हो या न हो। इसलिए एकोत्तरागम को श्रालय शब्द से 'श्रालय- विज्ञान' इष्ट है। १. चीनधारक चित श्रालय को सिद्ध करने में युक्ति यह है कि वह चित्त बीजों का धारक है। यदि यह न हो तो कोई अन्य चित्त नहीं है जो सांक्लेशिक और व्यावदानिक धर्मों के बीजों को धारण करे। सौत्रान्तिक (मूल) कहते हैं कि स्कन्ध वासित होते हैं और बीनों को धारण करते है। दान्तिकों के अनुसार पूर्व क्षण श्रपर क्षण को वासित करता है । अन्य सौत्रान्तिक काते है कि विज्ञान-जाति बासित होती है । शुश्रान-वांग कहते हैं कि यह तीनो मत अयुक्त हैं। पंच- सन्ध बीजों को धारण नहीं करते। प्रवृत्ति-विज्ञानों का विच्छेद निरोध-समापत्ति में तथा अन्य चार प्रासंशिक अवस्थाओं (निद्रा, मो, असंशि-समापत्ति, असशिदेव) में होता है। अतः वह निरन्तर बीचों को धारण नहीं कर सकते । विशानों की उत्पत्ति इन्द्रिय अर्थ-मनस्कार से होती है और यह कुशल-अकुशल-अव्याक्त इन विजातीय स्वभावों के होते हैं। अत: वह एक दूसरे को वासित नहीं कर सकते । अत: यह सच है कि स्त्र का इन प्रवृत्ति-विज्ञानों से प्राशय नहीं है, क्योंकि या पीणों का आदान नहीं करते। यह इस प्रर्य में चित नहीं है कि यह धर्मों के बीजों का स्वय