पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

y42 करते है । इसके अतिरिक्त प्रालय-विज्ञान, जो सदा अव्युच्छिन्न रहता है, एकजातीय है, और तिलपुष्पवत् है, वासित होता है। एक सर्वबीजक चित्त के अभाव में क्लिष्ट और अनासब चिस, बो प्रवृत्तिधर्म है, बीजों का उत्पादन नहीं करेंगे, और पूर्व बीजों की वृद्धि न करेंगे। अत: उनका कोई सामर्थ्य न होगा । पुनः यदि प्रवृत्तिधों की उत्पत्ति बीजों से नहीं होती, तो फिर उनकी उत्पत्ति कैसे होगी! क्या श्राप उनको स्वयंभू मानते हैं | रूप और विप्रयुक मी सर्वबीजक नही है। यह चित्तस्वभाव नहीं है। यह बीजों का श्रादान कैसे करेंगे। चेत्त उच्छिन होते हैं । इनकी विकल्पोत्पत्ति है। यह स्वतन्त्र नहीं हैं। यह चित्तस्वभाव नहीं है। अतः यह बीजों को धारण नहीं करते। इसलिए हमको प्रवृत्ति-विधान से भिन एक चित्त मानना होगा, जो सर्वबीजक है । एक सौतान्त्रिक मानते हैं कि छः प्रवृत्ति-विश्वानों का सदा उत्तरोत्तर उदय-व्यय होता है, और यह इन्द्रिय-अदि का सन्निश्रय लेते हैं | प्रवृत्ति-विज्ञान के क्षणों का द्रव्यत्व में अन्यथात्व होता है, किन्तु यह सब क्षण समान रूप से विज्ञप्ति है। विश्वान-जाति का अन्यथात्व नहीं होता। यह अवस्थान करती है। यह वासित होती है । यह जाति सर्वबीजक है । अतः इनके मन म सांश्लेशिक और व्यावदानिक धर्मों के हेतु-फल-भाव का निरूपण करने के लिए अष्टम विज्ञान की कल्पना अनावश्यक है। इस मत का खण्डन करने के लिए शुभान-बांग चार युक्तियां देते हैं:- १. यदि आपकी विज्ञान-जाति एक द्रव्य है, तो आप वैशेषिकों के समान 'सामान्य- विरोष को द्रव्य मानते हैं । यदि यह प्राप्तिसत् है, तो जाति-बीजों की धारक नहीं हो सकती, क्योंकि प्रशसिसत् होने से यह सामर्य-विशेष से रहित है। २. श्रापकी विज्ञान-जाति कुशल है या अकुशल ? क्योंकि यह अव्याकृत नहीं है, इसलिए यह वासित नहीं हो सकती। क्या यह अव्याकृत है। किन्तु यदि चित्त कुशल या अकुशल है तो कोई अन्याकृत चित्त नहीं है । श्रापकी विज्ञान-बाति यदि अव्याकृत और स्थिर है तो यह ब्युच्छिन होगी। वस्तुतः यदि द्रव्य कुशल-अकुशल है, तो जाति अन्याकृत नहीं हो सकती । महासत्ता के विपक्ष में विशेष सत्ता का वही स्वभाव होगा जो द्रव्यों का है। ३. आपकी विज्ञान-जाति संशाहीन अवस्थाओं में तिरोहित होती है। यह स्थिर नहीं है। इसका नन्तर्य नहीं है। अत: यह वासित नहीं हो सकती और सबीजक नहीं है। ४. अन्ततः चब अईत् और पृथग्जन के चित्त की एक ही विज्ञान-जाति है, तो विला और अनासप धर्म एक दूसरे को वास्ति करेंगे । क्या आप इस निरर्थक वाद को स्वीकार करते है। इसी प्रकार विविध इन्द्रियों की एक ही जाति होने से वह एक दूसरे को वासित करेंगी। किन्तु इसका आप प्रतिषेध करते हैं। श्रतः श्राप यह नहीं कह सकते कि विज्ञान-जाति वासित होती है । दान्तिक कहता है कि चाहे हम द्रव्य का विचार करें या जाति का, प्रति-विज्ञानो के दो समनन्तर पण सहभू नहीं है। अत: यह वासित नहीं हो सकते, क्योंकि वासित करने बाले और बासित होनेवाले को सहभू होना होगा।