पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बौद-धर्म-दर्शन होते हैं तब उनके एक विपाक-चित्त भी होता है, क्योंकि जबतक वह बुद्ध नहीं है तक्तक वह सत्व है। ३. गति और योनि खत्र में उपदिष्ट है कि सत्व पाँच गतियों और चार योनियों में संसरण करतेहैं । अष्टम- विज्ञान के अभाव में हम नहीं देखते कि गति और योनि क्या हैं । १. गति को निरन्तर रखनेवाला, सर्वगत, संकीर्ण द्रव्यसत् होना चाहिये। यदि वह धर्म, बो विपाक नहीं है, यथा प्रायोगिक कुशल, गति में पर्यापन्न होते, तो गति संकीर्ण होती। क्योंकि जब एक सत्व ( कामधातु का सत्व ) रूपधातु के एक कुशल-चित्त का उत्पाद करता, तब वह एक ही समय में मनुष्य और देवगति का होता ( कोश ३, पृष्ठ १२ )। विपाक-रूप (औपचयिक से अन्यत्र, कोश १, पृष्ठ ६६ ) और कर्म हेतुक पाँच विज्ञान गति में पर्यापन नहीं है, क्योंकि प्रारूप्य में रूप और पंच विज्ञान का अभाव है | सब भवों में उपपत्ति- लामिक धर्म और कर्म-हेतुक मनोविज्ञान होते हैं । इन धर्मों में नैरन्तर्य नहीं होता । विप्रयुक्त द्रव्यसत् नहीं है । अत: उनका क्या विचार करना ? २. केवल विपाक-चित्त और संप्रयुक्त-चैत्तों में चारों लक्षण होते हैं, और यह गति तथा योनि हैं । तथागत के कोई अव्याकृत, कोई विपाक धर्म नहीं है । अत: वह गति-योनि म संगृहीत नहीं है। उनमें कोई सासव धर्म नहीं हैं । अत: वह धातुओं में संग्रहीत नहीं है। भगवान् के प्रपंच-बीज निरुद्ध हो चुके हैं। गति-योनि, विपाक-चित्त और तत् संप्रयुक्त चैत्त के ही स्वभाव के हैं । यह वस्तुतः विपाक है। यह विपाकज नहीं हैं । अतः यह अष्टम विज्ञान है। १.उपादान सूत्र के अनुसार रूपीन्द्रिय काय उपात्त है। अष्टम विज्ञान के अभाव में इस काय का उपादाता कौन होगा? यदि पांच रूपीन्द्रिय अपने अधिष्ठान के सहित ( 'शब्द' को वर्जित कर नौ रूपी श्राय- तन) उपात्त होते हैं, तो यह अवश्य एक चित्त के कारण है जो उनको स्वीकृत करता है। छः प्रवृत्ति-विशानों के अतिरिक्त यह चित्त केवल विपाक-चित्त हो सकता है। यह पूर्वकृत कर्म से श्रावित होता है। यह कुशल-क्लिष्टादि नहीं है। यह केवल अव्याकृत है । यह तीनों पातुओं में पाया जाता है, इसका निरन्तर सन्तान है। पत्र का यह कहने का श्राशय है कि प्रवृत्ति-विज्ञान में उपादान की योग्यता नहीं है, स्पोंकि वह समाग नहीं है, धातुत्रय में पाए नहीं जाते और इनका निरन्तर सन्तान नहीं होता। सत्र का यह कहने का अभिप्राय नहीं है कि केवल विपाक-चित्त में यह सामर्थ्य है, क्योंकि इसका यह अर्थ होगा कि बुद्ध का रूपकाय बो कुशल अनासव है, बुद्ध के चित्त से उपात्त नहीं है, क्योंकि बुद्ध में कोई विपाक-धर्म नहीं है। यहां केवल सासव-काय की बात है और केवल विपा-चित्त इस काय को उपाच करता है।