पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५४५

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मशवृक्षमयाब २. जीवित, सम और विज्ञान सूत्र के अनुसार जीवित, उध्म और विज्ञान अन्योन्य को प्राश्रय देकर सन्तान में श्रव- स्थान करते हैं। हमारा कहना है कि अष्टम विज्ञान ही एक विशान है जो जीवित और उष्म का समाश्रय हो सकता है। १. शब्द, वायु अादि के समान प्रवृत्ति-विज्ञान का नैरन्तर्य नहीं है, और यह विकारी है । यह समाश्रय की निरन्तर क्रिया में समर्थ नहीं है । अतः यह वह विज्ञान नहीं है, जिसका सूत्र में उल्लेख है। किन्तु विपाक-विज्ञान जीवित और उष्म के तुल्य ब्युच्छिन्न नहीं होता, और विकारी नहीं है । अत: उसकी यह क्रिया हो सकती है । अत: यही विज्ञान है, जो जीवित और उष्म का समाश्रय है। उपदिष्ट है कि यह तीन धर्म एक दूसरे को श्राश्रय देते हैं, और श्राप मानते हैं कि जीवित और उष्म एकजातीय और अन्युच्छिन्न है। तो क्या यह मानना युक्त है कि यह विज्ञान प्रवृत्ति-विज्ञान है, जो एकजातीय और अव्युच्छिन्न नहीं है ? २. जीवित और उध्म सासव धर्म है | अत: जो विज्ञान इनका समाश्रय है, वह अना- सव नहीं है। यदि आप अष्टम विज्ञान नहीं मानते तो बताइये कि कौन-सा विधान प्रारूप्य- धातु के सत्व के जीवित का श्राश्रय होगा ( प्रारूप में अनासव प्रवृत्ति-विज्ञान होता है)। अत: एक विपाक-विज्ञान है । यह अष्टम विज्ञान है। ६. प्रतिसन्धि-सित और मरण-चित्त १. सूत्रवचन है कि प्रतिसन्धि और मरण के सभी सत्व अचित्तक नहीं होते। समाहित-चित्त नहीं होते, विक्षिप्त-चित्त होते हैं। प्रतिसन्धि-चित्त और मरण-चित्त केवल अष्टम विज्ञान है । इन दो क्षणों में चित्त तथा काय अस्वप्निका निद्रा या अतिमूर्छा की तरह मन्द होते हैं। पटु प्रवृत्ति-विज्ञान उस्थित नहीं हो पाते । इन दो क्षणों में छ: प्रवृत्ति-विज्ञानों की न संविदित विज्ञप्ति-क्रिया होती है, न इसका संविदित आलंबन होता है । अर्थात् उस समय इन विज्ञानों का समुदाचार नहीं होता जैसे अचित्तक अवस्था में उनका समुदाचार नहीं होता। क्योंकि यदि प्रतिसन्धि-चित्त और मरण- चित्त, जैसा कि आपका कहना है, प्रवृत्ति-विज्ञान है, तो उनकी विज्ञप्ति-क्रिया और उनका बालंबन संविदित होना चाहिये । इसके विरुद्ध अष्टम विज्ञान अति सूक्ष्म और असंविदित होता है। यह प्राक्षेपक कर्म का फल है ! अतः यह वस्तुतः विपाक है। एक नियतकाल के लिए यह एक अन्युच्छिन और एकजातीय सन्तान है। इसी को प्रतिसन्धि-चित्त और मरण-चित्त कहते हैं। इसीके कारण इन दो क्षणों में सत्व अचित्तक नहीं होता और विक्षिप्त चित्त होता है। २. स्पपिरों के अनुसार इन दो क्षणों में एक सूक्ष्म मनोविज्ञान होता है जिसकी विशति-क्रिया और बालंबन असविदित है। ५८