पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५४८

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बौद्ध-धर्म-दर्शन सोमान्तिक (दान्तिक) मानते हैं कि निरोध-सभापत्ति में चित्त नहीं होता। यह कहते है कि दो धर्म अन्योन्यबीजक है—चित्त और सेन्द्रियक काय । चित्त उस काय का बीज है वो प्रामप्य-भव के पश्चात् प्रतिसन्धि ग्रहण करता है, और काय ( रूप ) उस चित्त का बीज है जो अचिसक समापत्ति के पश्चात् होता है। यदि समापत्ति की अवस्था में बीजधारक विज्ञान नहीं है तो अबीजक व्युत्थान-चित्त की कैसे उत्पत्ति होगी। हमने यह सिद्ध किया है कि अतीत, अनागत, विप्रयुक्त वस्तुसत् नहीं है और रूप वासित नहीं होता तथा बीज का धारक नहीं होता । पुनः विज्ञान अचित्तक अस्थाओं में रहता है, क्योंकि इन अस्थाओं में इन्द्रिय-जीवित-उष्म होते हैं, क्योंकि यह अवस्थाएँ सत्वाल्य की अवस्थाएँ हैं। अतः एक विज्ञान है जो काय का त्याग करता है। अन्य सौत्रान्तिकों का मत है कि निरोध-समापत्ति में मनोविज्ञान होता है। किन्तु इस समापत्ति को अचित्तक कहते हैं । सौत्रान्तिक उत्तर देते हैं कि यह इसलिए है कि पंच-विज्ञान का वहाँ प्रभाव होता है । हमारा कथन है कि इस दृष्टि से सभी समापत्तियों को 'अचित्तक' कहना चाहिये । पुनः मनोविज्ञान एक प्रवृत्ति-विशान है। इसलिए इस समापत्ति में इसका प्रभाव होता है जैसे अन्य पाँच का होता है। यदि इनमें मनोविज्ञान है तो तत्संप्रयुक्त चैत भी होना चाहिये । यदि वह है तो स्त्रवचन क्यों है कि वहाँ चित्त-संस्कार ( वेदना और संशा) का निरोध होता है । इसे संचा- वेदित निरोध-समापति क्यों कहते हैं ? जब सौत्रान्तिक यह मानते हैं कि निरोध-समापत्ति में चेतना और अन्य चैत्त होते हैं, तो न्हें यह भी मानना पड़ेगा कि इसमें वेदना और संज्ञा भी होती है। कितु यह सूत्रवचन के विरुद्ध है। अतः इस समापत्ति में चैत्त नहीं होते। एक सौत्रान्तिक ( भदन्त वसुमित्र ) कहते हैं कि समापत्ति में एक सूक्ष्म चित्त होता है किन्तु चैत्त नहीं होते। यदि चैत्त नहीं है तो चित्त भी नहीं है । यह नियम है कि धर्म नहीं होता जब उसके संस्कारों का अभाव होता है। यह सौत्रान्तिक मानते हैं कि निरोध-समापत्ति में चैतों से असहगत मनोविज्ञान होता है। इसके विरोध में हम यह सूत्र उद्धृत करते हैं :-"मनस् और धर्मों के प्रत्ययवश मनोविज्ञान उत्पन होता है। त्रिक का संनिपात स्पर्श है। पर्श के साथ ही वेदना, संशा र चेतना होती है।" यदि मनोविज्ञान है तो त्रिक-संनिपातवश स्पर्श भी होगा और वेदनादि जो स्पर्श के साथ उत्पन्न होते हैं, वह भी होगी। हम कैसे कह सकते है कि निरोध-समापत्ति में चैत्तों से असहगत मनोविज्ञान होता है। पुनः यदि निरोध-समापत्ति चैत्रों से वियुक्त है तो उसे चैत-निरोध- समापत्ति कहना चाहिये। हमारा सिद्धान्त यह है कि निरोध-समापत्ति में प्रवृत्ति-विज्ञान काय का परित्याग करते है, और जब सूत्र कहता है कि विज्ञान काय का त्याग नहीं करता तो उसका अभिप्राय अष्टम