पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५५०

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४६२ चौध-धर्म-दर्शन होता है । सूत्रवचन में 'नामरूप' शब्द नहीं है। इसलिए कहना चाहिये कि संस्कार- प्रत्यय नामरूप है, विज्ञान नहीं। और विज्ञान-प्रत्यय नामरूप कहाँ मिलेगा ! क्या आप करेंगे कि उत्तरकाल का नामरूप इष्ट है। तो प्रातिसन्धिक नामरूप से इसमें क्या प्रामातिशय है बो वही विज्ञान-प्रत्यय हो, पूर्व विज्ञान-प्रत्यय न हो, पूर्व संखार-प्रत्यय हो, उत्तर न हो ? अतः संस्कार-प्रत्यय नामरूप ही हो। प्रतिसन्धि-विज्ञान की कल्पना से क्या लाभ १ अतः संस्कार-प्रत्यय प्रतिसन्धि-विज्ञान युक्त नहीं है। संस्कार-परिभावित पविज्ञान भी संस्कार- प्रत्यय विशान नहीं है। इसका कारण यह है कि यह विज्ञान विपाक-वासना या निष्यन्द-वासना का अपने में प्राधान नहीं कर सकते, क्योकि इनमें कारित्र का निरोध है । यह अनागत में भी नहीं कर सकते, क्योंकि उस समय अनागत उत्पन्न नहीं है, और जो अनुत्पन्न है वह असत् है । उत्पन्न पूर्व भी असत् है, क्योंकि उस समय वह निरुद्ध हो चुका है। पुनः निरोध-समापत्ति आदि अचित्तक अवस्थात्रों में संस्कार-परिभावित चित्त की उत्पत्ति संभव नहीं है | विज्ञान-प्रत्यय नामरूप न हो, षडायतन न हो, एवं यावत् जातिप्रत्यय जरा-मरण न हो । इससे संसार-प्रवृत्ति ही न हो । इसलिए अविद्या प्रत्यय संस्कार, संस्कार-प्रत्यय श्रालय-विज्ञान और विज्ञान-प्रत्यय प्रतिसन्धि में नामरूप होता है। यह नीति निदोष है। तीन व्यवदान-व्यावदानिक धर्म तीन प्रकार के हैं--लौकिक मार्ग, लोकोत्तर मार्ग क्लेशच्छेद का फल । इन दो मार्गों के बीजों का धारण करनेवाले अष्टम विज्ञान के अभाव में इन दो भागों का पश्चात् उत्पाद असंभव है । क्या आप कहेंगे कि इनकी संपत्ति अहेतुक है ? तो श्रापको मानना होगा कि निर्वाण में वही अाश्रय पुनरुत्पन्न हो सकता है। यदि अश्म विज्ञान न हो, जो सर्वदा लोकोत्तर मार्ग के धर्मता-बीज का धारण करता है, तो हम नहीं समझ सकते कि कैसे दर्शन-मार्ग के प्रथम क्षण की उत्पत्ति संभव है । वस्तुतः सानव धर्म ( लौकिकाग्र धर्म ) भिन्न स्वभाव के हैं और इस मार्ग के हेतु नहीं हो मकते । यह मानना कि प्रथम लोकोत्तर-मार्ग आहेतुक है, बौद्ध धर्म का प्रत्याख्यान करना है। यदि प्रथम की उत्पत्ति नहीं होती तो अन्य भी उत्पन्न नहीं होंगे । अतः तीन यानों के मार्ग और फल का अभाव होगा। अष्टम के अभाव में क्लेश-प्रहाण फल असंभव होगा। स्विरमति कहते हैं कि श्रालय-विज्ञान के न होनेपर निवृत्ति भी न होगी। कर्म और स्लेश संसार के कारण हैं । इनमें क्लेश प्रधान है । क्लेशों के अाधिपत्य से कर्म पुनर्भव के आक्षेप में समर्थ होते हैं, अन्यथा नहीं। इस प्रकार क्लेश ही प्रवृत्ति के प्रधानतः मूल हैं । अतः इनके प्रहीण होने पर संसार का विनिवर्तन होता है, अन्यथा नहीं। किन्तु श्रालय के बिना यह प्रहाण युक्त नहीं है । क्यों युक्त नहीं है ? संमुम्ब होनेपर, क्लेश का प्रहाण हो सकता है या जब उसकी बीजावस्था होती है । यह इष्ट नहीं है कि संमुख होने पर क्लेश का प्रहाण हो। प्रहाणमार्ग में स्थित सत्वों का क्लेश, जो बीजावस्था ही में है, नहीं प्रहोण होता। क्लेश-बीन अपने प्रतिपक्ष से ही प्रहीण होता है । और प्रतिपक्ष-चित्त भी क्लेश-