पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५५२

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४६५ बौद-बर्म-दर्शन अनादि और जो अनन्तकाल तक उत्पन्न होते रहेंगे। एक उसको अचल पर्वत की तरह देखता है, दूसरा जलौघ की तरह । विज्ञानवादी ने द्रव्य को अपना पुराना स्थान देना चाहा, किन्तु यह सत्य है कि इस द्रव्य को उन्होंने एक जलौघ के सदृश माना । पुनः इनके अनुसार यह आभय स्वयं धर्म है और पूर्व धर्मों की वासनानों से बना है। शुमान-वांग कहते हैं कि यह श्रालय-विज्ञान अध्यन्त सूक्ष्म है और विति-क्रिया तथा बालंबन में यह असंविदित है। यह मरण के उत्तर तथा प्रतिसन्धि के पूर्व रहता है। पुनः यह प्रतिसन्धि-चित्त और मरण-चित्त है। यह विज्ञान का श्रालय जो अनियत और असं- विदित है, जो प्रतिसन्धि-काल से विद्यमान है, जो अस्वप्निका निद्रा में ही प्रकट होता है। यह आत्मा का रूपान्तर नहीं है तो क्या है ? यहां बालय-विज्ञान के वही लक्षण हैं जो आत्मा के हैं, और इसके सिद्ध करने के लिए शुश्रान-वांग ने जो प्रमाण दिए हैं वही प्रमाण कुछ वेदान्ती ब्रह्मन् आत्मन् को सिद्ध करने के लिए देंगे। कलल में, सुषुप्ति में, मरणासन्न पुरुष में, नामरूप के अभाव में, जब विज्ञान-विशेष नहीं होते, केवल यह अस्पष्ट, सर्वगत विज्ञान शेष रह जाता है। इसके बिना इन क्षणों में स्थिति नहीं होती। श्रालय-विज्ञान की सिद्धि इससे भी होती है कि काय-जीवित को धारण करने के लिए विशानाहार की आवश्यकता है । यह श्रालय एकजातीय, सन्तानात्मक और निरन्तर है । यह काय-जीवित का धारक है । काय के लिए यह जीवितेन्द्रिय के समान है। चित्त का यह श्रावश्यक धारक है। यह सर्व चित्त और जीवन का आधार है । प्रालय-विज्ञान और धर्म अन्योन्य हेतु-प्रत्यय हैं और सहभू हैं। विपाक-विज्ञान का सविभंग विवेचन समाप्त हुआ । अब हम मननाख्य द्वितीय परिणाम का विचार करेंगे। विज्ञान का द्वितोय परिणाम 'मन' यह दितीय परिणाम है। वसुबन्धु त्रिशिका में कहते हैं:-"अालय-विज्ञान का आश्रय लेकर और उसको पालंबन बनाकर मनस् का प्रवर्तन होता है। यह मन्यनात्मक है।" यह मनो- विधान से भिन्न है । यह मनोविज्ञान का आश्रय है । पुसे कहते हैं कि प्राचीन बौद्ध धर्म में छः विज्ञान माने गए थे:-चक्षुर्विज्ञानादि पंच विज्ञानकाय और मनोविज्ञान जो इन्द्रियार्थ और अती- तादि धर्म का ग्रहण करता है। यह विज्ञान निरन्तर व्युच्छिन्न होते हैं । विज्ञानवाद में एक सातवाँ विशान मनस् और एक पाठवा आलय अधिक है । मनस् मनोविज्ञान से भिन्न है । मनस् अन्त- रिन्द्रिय, अन्तःकरण है, क्योंकि यह केवल श्रालय को ही श्रालंबन बनाता है। यह मनस् प्रालय के समान सन्तान में उत्पन्न होता है। निद्रादि अचित्तकावस्था में इनका अवस्थान होता है। विज्ञानवादी कहता है कि यह सूक्ष्म है। यह मनस् अार्य में अनासव तथा अन्य सत्वों में सदा दिला होता है । मनस् को प्रायः 'क्लिष्ट मनस्' कहते हैं । इसीके कारण पृथगजन ार्य नहीं होता यद्यपि उसका मनोविज्ञान आर्य का क्यों न हो।