पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५५८

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बौर-धर्म-दर्शन के अनुसार मनस् अात्ममाह और अात्मीयग्राह से सदा सहगत होता है, यह प्रालय को श्रात्मवत् और तत्संप्रयुक्त धर्मों को आत्मीय अवधारित करता है। यह धर्म प्रालय के चैत्त है । अतः यह उससे व्यतिरिक्त नहीं हैं । अतः यह व्याख्यान उन वचनों के विरुद्ध नहीं है, जिनके अनुसार मनस् का श्रालंबन केवल श्रालय-विज्ञान है। चित्रभानु का मत-नन्द का मत अयुक्त है । उनके मत के समर्थन में कोई शास्त्रवचन नहीं है। मनस् का आलंबन दर्शनभाग और निमित्तभाग है। मनम् इनको क्रम से अात्म, श्रात्मीय अवधारित करता है। किन्तु इन दो भागों के स्वभाव अालय में (स्वमंवित्तिभाग में) ही हैं । स्थिरमति का मत-चित्रभानु का मत भी अयुक्त है ।मनस् स्वयं प्रालय-विज्ञान और उसके बीजों को बालंबन बनाता है। यह प्रालय को आमन् और बीजो को ग्रामीय अव- धारित करता है । बीज भूतमद्व्य नहीं हैं किन्तु प्रवृत्ति-विज्ञान के सामर्थ्यमात्र हैं । धर्मपाल का मज-स्थिरमति का व्याख्यान अयुक्त है । एक और रूप-बीजादि विज्ञान- स्कंध नहीं है। बीज भूतमत् हैं। यदि यह सांवृत असत् हो तो यह हेतु-प्रत्यय न हों । दूसरी श्रोर मनस् सदा सहज सत्कायदृष्टि से सहगत होता है। यह एक जातीय निरन्तर सन्तान में स्वरसेन प्रवर्तित होता है । क्या मनम् का अामा और प्रान्मीय को अलग अलग अक्धारित करना संभव है ? हम नहीं देखते कि कैसे एक चित्त के शाश्वत-उच्छेद आदि दो बालंबन और दो माह हो सकते हैं; और मनम् के, जो सदा से एकरस प्रवर्तित होता है, दो उत्त- रोत्तर प्राह नहीं हो सकते । धर्मराज का निश्चय है कि मनम् का ग्रालंबन केवल दर्शनभाग है, न कि अन्य भाग; क्योंकि यह भाग सदा एकजातीय निरन्तर सन्तान होता है, और नित्य तथा एक प्रतीत होता है, और क्योंकि यह सब धर्मों का ( चैत्तों को वर्जित कर ) निरन्तर श्राश्रय है। इसी भाग को मनस् अध्यात्म प्रा.मा अवधारित करता है। किन्तु शास्त्रवचन है कि मनम् में ग्रामीयाह होता है। यह एक कठिनाई है। हमारा कहना है कि यह भाध्याक्षेप है। धर्मपाल के मत का यह परिणाम है कि विज्ञानवाद, जो मूल में श्रद्वयवाद था, प्रात्माद का श्रोर भुकता है । श्रालय-विज्ञान में एक दर्शनभाग को मुख्यतः विशिष्ट करना और यह कहना कि केवल यही अाकार, यही भाग, मनस् का आलंबन है; कदाचित् यह कहने के बराबर हो जाता कि अालय-विज्ञान अव्यक्त ब्रह्म भी नहीं, अामा के समान है । जबतक मनस् अपरावृत्त है, तबतक मनस् का अालय-विज्ञान ही एकमात्र श्रालंबन होता है । जब श्राश्रय-परावृत्ति होती है, तब अष्टम विज्ञान के अतिरिक्त भूततथता और अन्य धर्म भी इसके श्रालंबन होते हैं । मनस् के संप्रयोग कितने चैत्तों से मनस् संप्रयुक्त होता है ? मनस् सदा चार क्लेशों से संप्रयुक्त होता है । यह चार मूल क्लेश इस प्रकार हैं -१. अात्ममोह- यह अविद्या का दूसरा नाम है । यह श्रात्मा के विषय में मोह और अनात्मा में विप्रतिपत्ति उत्पन्न करता है । २. अात्मदृष्धि--यह श्रान्ममाह है, जिससे पुद्गल अनात्म धर्मों को प्रात्मवत् ग्रहण करता है। ३. श्रात्ममान--यह गर्व है