पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५६४

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बौ-धर्म-दर्शन और एक का परस्पर विरुद्ध अनेकात्मकत्व युक्त नहीं है । अतः यह मानना चाहिये कि विकल्प का श्रालंबन असत् है। यह समारोपान्त का परिहार है। अब हम अपवादान्त का परिहार करते हैं । कारिका कहती है-'तेनेदं सर्व विज्ञप्तिमारकम् ।' अर्थात् क्योंकि वित्य के अभाव में परिणामात्मक विकल्प से विकसित (विकल्यते) नहीं है इसलिए. सब वितिमात्र है। 'सर्व' से श्राशय त्रैधातुक और असंस्कृत से हैं (पृ० ३६ )। विज्ञप्ति से अन्य कर्ता या फरण नहीं है। स्थिरमति का यह अर्थ इस श्राधार पर है कि विकल्प के गोचर का अस्तित्व नहीं है। विकल्म का विषय असत् है । इस प्रकार विज्ञान की लीला स्वप्न-मायावत् है। हम देखते हैं कि विज्ञानवाद का यह विवेचन श्रव भी नागार्जुन की शन्यता के लगभग अनुकूल है। धर्मपाल का विज्ञानवाद इसके विपरीत स्वतन्त्र होने लगता है। श्रत्र वाक्य यह हो जाता है कि विज्ञान या विज्ञप्ति में सब कुछ है। धर्मगल कहते हैं कि दर्शनभाग और निमित्तभाग के श्राभान में विज्ञान का परिणाम होता है | विज्ञान से तात्पर्य तीन विज्ञानों के अतिरिक्त (श्रालय-कितष्ट-मनम् , पड्विज्ञान ) उनके चैत्त से भी है। पहले भाग को 'विकल्प' कहते हैं, और दूसरे भाग को 'यद विकल्यते । यह दोनों भाग परतन्त्र हैं । श्रतः विज्ञान से परिणत इन दो भागों के बाहर श्रात्मा और धर्म नहीं हैं। वस्तुतः ग्राहक-प्राय, विकल्प विकल्पित के बाहर कुछ नहीं है । इन दो भागों के बाहर कुछ नहीं है जो भूतद्रव्य हो । अतः सब धर्म संस्कृत-संस्कृत, रूपादि वस्तुसत् और प्रशप्तिसत्-विज्ञान के बाहर नहीं हैं । सामासिक रूप से 'विज्ञप्तिमात्रता' का अर्थ यह है कि हम उस सत्र का प्रतिबंध करते हैं, जो विज्ञान के बाहर है ( परिकल्पित अात्मा और धर्म )। किन्तु हम वैत्त, भागद्वय, रूप और तथता का प्रतिपेध नहीं करते, जहाँ तक वह विज्ञान के बाहर नहीं हैं। नन्द के मत में केवल दो भाग है। दर्शनभाग निमित्तभाग में परिणत होता है। यह निमित्तभाग परतन्त्र है, और बहि:स्थित विषय के रूप में अवभासित होता है। नन्द सवित्तिभाग नहीं मानते। उनके लिए परिकल्प ( विकल्प ) और परिकल्लित अर्थात् प्राहक और ग्राह्य निमित्तभाग के संबन्ध में दो मिथ्याग्राह हैं। वस्तुतः जब कोई दर्शनभाग को श्रात्मवत् धर्मवत् अवधारित करता है, तब यह भी निमित्तभाग के संबन्ध में एक माह ही है । यह माह बिना बालंबन के नहीं है। क्योंकि विकल्प निमित्तभाग का ग्रहण बहिःस्थित प्रात्मधर्म के आकार में करता है, इसलिए गृहीत एवं विकल्पित आत्मधर्म का स्वभाव नहीं है । अतः सब विज्ञप्तिमात्र है । अभूत-परिकल्प का अस्तित्व सब मानते हैं । पुनः मात्र शब्द से विज्ञान के अव्यतिरिक्त धर्मों का प्रतिषेध नहीं होता । अतः तथता, चैत्तादि वस्तुसत् हैं। शुभान-योग का इस कारिका का अर्थ ऊपर दिया गया है। वह नागार्जुन के शान्यतावाद के समीपवर्ती एक पुराने वाद का उपयोग स्वतन्त्र विज्ञानवाद के लिए करते हैं। यामाची का भी यही मत है।