पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५६५

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मावश अध्याय ५०० शुश्रान-बांग अपने वाद की पुष्टि में श्रागम से वचन उद्धृत करते हैं, और युक्तियाँ देते हैं। यहाँ हम बागम के कुछ वाक्य देते हैं। दशभूमक सूत्र में उक्त है:-चित्तमात्रमिदं यदिदं धातुकम् । पुनः सन्धिनिर्मोचनसूत्र में भगवान् कहते हैं :-विज्ञान का श्रालंबन विज्ञान प्रतिभास मात्र है। इस सूत्र में मैत्रेय भगवान् से पूछते हैं कि समाधिगोचर विध चित्त से भिन या अभिन्न है । । भगशन् प्रश्न का विसर्जन करते हैं कि यह भिन्न नहीं है, क्योंकि यह बिम्ब विज्ञानमात्र हैं । भगवान् श्रागे कहते हैं कि विज्ञान का आलंबन विज्ञान का प्रतिभासमात्र है। मैत्रेय पूछते हैं कि यदि समाधिगोचर बिम्ब वित्त से भिन्न नहीं है, तो चित्त कैसे उसी चित्त का ग्रहण करने के लिए लौटेगा ! भगवान् उत्तर देते है कि कोई धर्म अन्य धर्म का ग्रहण नहीं करता, किन्तु जब विज्ञान उत्पन्न होता है तब यह उस धर्म के आकार का उत्पन्न होता है और लोग कहते हैं कि यह उस धर्म को ग्रहण करता है। लंकावनार में है कि धर्म चित्त-व्यतिरिक्त नहीं हैं । धनन्यूह में है-चित्त, मनस्, विधान (पड्विज्ञान ) का भातंबन भिन्न-स्वभाव नहीं है । इसीलिए मैं कहता हूं कि सब (संस्कृत और और संस्कृत ) विज्ञानमात्र हैं। विज्ञान व्यतिरिक्त वस्तु नहीं है। श्रागम और युक्ति सिद्ध करते हैं कि अात्मा और धर्म असत् है । तथता या धर्मों का परिनिष्पन्न स्वभाव ( शन्यता ) और विज्ञान परतन्त्रस्वभाव ) असत् नहीं है। श्रात्म- धर्म सत्व से बाह्य है । शूरता और विज्ञान असत्य से बाह्य हैं । यह मध्यमा प्रतिपत् है । इसीलिए मैत्रेप मध्यान्तविभाग में कहते हैं:-अभूत-परिकार है। इसमें परमार्थतः द्वय ( ग्राह्य ग्राहक ) नहीं है । इस अभून-परिकल्र में शत्यता है । यह अभूत-परिकल्प शू-यता में है। अतः मैं कहता हूं कि धर्म न शन्य है, न अशून्य । वस्तुतः असत्य है, सत्व है। यह मध्यमा प्रतिपत् है। इसमें एकान्तेन शन्यता या अशष्यता में निष्ठा नहीं है। अभूतपरिकल्पात्मक संस्कृत शस्य नहीं है । पुनः वह मायग्राहकभाव को रहितता होने से शल्य है । सस्तित्व और सर्व- नास्तित्व इन दोनों अन्तों का यह मध्य है । पूसे किमी टीका से देते हैं-शासव-चित्त या धातुक-चित्त ( अनासव-शान का प्रतिपक्ष) जो अभूत-परिकल्प है, है। किन्तु द्वय---ग्राह्य-शाहक है ग्राम-धर्म-जो समारोपित है, नहीं है | साप्तव चित्त में शरता है अर्थात् इस चित्त में द्वयाभाव है । शून्यता में सासव चित्त है। इस प्रकार जो द्वय-विनिर्मुक्त है उसमें द्वय का समारोप होता है। अतः धर्म शून्य नहीं है क्योंकि यह शुन्य और अभूत परिकल्प हैं | वह अशन्य नहीं है, क्योंकि वहाँ द्वय ( ग्राह्य और ग्राहक, आत्मन् और धर्म ) का अभाव है। जब अभूत-परिकल्प है, द्वय नहीं है । अभूत- परिकल्प में शून्यता है, और शन्यता में अभूत-परिकल्प है। तब यही भावविवेक की परमार्यतः शल्यता और हीनयान के परमार्थतः सत्त्र के बीच मध्यमा प्रतिपत् है। भावविवेक के विरुद्ध हम संवृति और परमार्थ हा दो सत्यों को मानते हैं, और हीनयान के विरुद्ध हम प्राह्य-ग्राहक का प्रतिषेध करते हैं। हम देखते हैं कि किस प्रकार सूक्ष्म रूप से हल्के हल्के