पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५६९

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बसवप्रयाय ४८१ को 'सर्व बीज' कहते हैं क्योंकि वह चार प्रकार के फल का उत्पादन करने है (निष्यन्द, विपाक, पुरुषकार, अधिपति-फल )। केवल विसंयोग-फल वर्जित है। यह बीजों से उत्पन्न नहीं होता । यह असंस्कृत है। यह फल बीज-फल नहीं है। मार्ग की भावना से इस फल की प्राप्ति होती है । बीज ज्ञान का उत्पाद करते हैं; शान संयोजन का उपच्छेद करते हैं, और इसीसे विसंयोग का संमुखीभाव होता है । किन्तु बीज से सर्व विकला का अनन्तर उत्पाद होता है । हम बीजों को 'विज्ञान' से प्रज्ञप्त कर सकते हैं, क्योंकि उनका स्वभाव विज्ञान में है । यह मूलविज्ञान से व्यतिरिक्त नहीं हैं। कारिका 'बीज' और 'विज्ञान' दोनों शब्दों का एक साथ प्रयोग इस कारण करती है कि कुछ बीज विज्ञान नहीं हैं यथा--माख्यों का प्रधान और कुछ विशान बीज नहीं हैं यथा-प्रवृत्ति-विज्ञान । अष्टम विज्ञान के बीज ( जो विकल्पों के हेतु-प्रत्यय हैं ) अन्य तीन प्रत्ययों की सहायता से उस उस परिणाम ( अन्यथाभाव ) को प्राप्त होते हैं, अर्थात् जनभावस्था मे पाककाल को प्राप्त होते हैं । यह तीन प्रत्यय प्रवृत्ति-विज्ञान है । सब धर्म एक दूसरे के निमित्त होते हैं । इस गकार प्रालय-विज्ञान से अनेक प्रकार के विकल्प उत्पन्न होते हैं । श्रागे चलकर शुभान-बान विज्ञानवाद की पुष्टि श्रालंबन-प्रत्ययवाद से करते हैं । इसका लक्षण इस प्रकार है:-यह सद्धर्म जिसपर चित्त-चैत्त प्राश्रित है, और जो उन चित्त-नैतों से शात है, जो तत्सदृश उत्पन्न होते हैं । वस्तुत: सर्व विज्ञान का इस प्रकार का बालंबन होता है, क्योंकि किसी चित्त का उत्पाद बिना आश्रय के नहीं हो सकता, बिना उस अर्थ की उपलब्धि के नहीं हो सकता जो उसके अभ्यन्तर है। इसीसे मिलता-जुलता एक दूसरा प्रश्न यह है कि यद्यपि अाभ्यन्तर विज्ञान है, तथापि बाब प्रत्ययों के अभाव में भावों की अन्युच्छिन्न परंपरा का क्या विवेचन है ? शुयान-च्चांग उत्तर में वसुबन्धु की कारिका १६ उद्धृत करते हैं:- कर्मणो वासनाग्राहदयवासनया सह । क्षीणे पूर्वविपाकेऽन्यद् विषाकं जनयन्ति तत् ।। "पूर्व विपाक के क्षीण होनेपर कर्म की वासना ग्राहद्वय की वासना के साथ अन्य विपाक को उत्पन्न करती है।" अर्थात् पूर्वजन्मोपचित कर्म के विपाक के क्षीण होनेपर कर्मवासना ( कर्मबीज ) और आत्मप्राह-धर्मग्राह की वासना ( बीज ) उपभुक्त विपाक से अन्य विपाक का उत्पाद करती है। यह विपाक नालय-विज्ञान है । (स्थिरमति का भाग्य, पृ० ३७)। शुभान-ब्वाँग की व्याख्या इस प्रकार है:--निश्चय ही सर्व कर्म चेतना कर्म है। और कर्म उत्पन्न होने के अनन्तर ही विनष्ट होता है। अतः हम नहीं मान सकते कि यह स्वतः फलोत्पादन का सामर्थ्य रखता है। किन्तु यह मूल विज्ञान में फलोत्पादक बीज या शक्ति का