पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५७

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नाड़ी में अवधूती के अन्दर कृष्ण-रेखा दृष्टिगोचर न हो । इसमे अमल-किरणों का स्फुरण होता है । यह रेखा केशप्रमाण है, परन्तु इसमें अशेष धातुक मर्वज्ञ-बिंब दीख पड़ता है। यह जन में सूर्य-प्रतिबिंब के समान है। यह बिब वस्तुतः स्वचित्त है, अर्थात् अनाविल, अनन्तवर्ण विशिष्ट, सर्वाकार, विषयहीन स्वचित्त । यह पचित्त नहीं है। यह स्वचित्तामास पहले स्थूलदृष्टि से, अथात् मासचन्तु से दृष्ट होता है, बाद में दिव्य-चक्षु, बुद्ध-चक्षु, प्रज्ञा चच भान-चतु प्रभृति का विकास होता है । भावना के प्रभाव से रूम चक्षुधा के द्वारा ही पचित्त का साक्षात्कार होता है। प्रसिद्धि है कि वज्रपाणि ने भी अपने दृष्टिकोण से षडंग योग का उपदेश दिया था। उसमें किसी किसी अंश म वैलक्षण्य भी है। जिस समय प्रत्याहारादि अंगों से बिंब-दर्शन का प्रभावहेतुक अक्षर-क्षण का उदय होता है, तब नाद के अभ्यास से बलपूर्वक प्राण को मध्य नाड़ी में गतिशील करके प्रशा-कमल स्थित वज्रर्माण में बोधिचित्त-बिन्दु को निरुद्ध करके निष्यन्द भाव से साधन करना पड़ता है। इसी का नाम तांत्रिक हठयोग है। यह योग मार्कण्डेय प्रतित हठयोग से भिन्न है, तथा मत्स्येन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ प्रभृति सिदो द्वारा प्रचारित नवीन हठयोग समी भिन्न है। जो शक्ति नाभि के भीतर द्वादशान्त नामक परमपद पर्यन्त चलती है, उसे निरुख करने पर वह वैद्युतिक अग्नि के सदृश दंडवत् उपस्थित होती है, और मध्य नाड़ी में मूदुर्गात से चालित होकर चक्र से चक्रान्तर में गमन करती है। इस प्रकार जब उष्णीष-स्त्र का स्पर्श होता है, तब अपान वायु को ऊर्ध्व-मार्ग में प्रेरित करना पड़ता है । इसके प्रभाव से उष्णीष कमल का भेद हो जाता है, और पर-पुर में गति होती है। दोनों वायुनों का निरोष श्राक- श्यक है । इसी का नाम वज्र-प्रबोध है। इससे विषय सहित मन खेचरत्व-शाम करता है। इतना होने पर योगियों की विश्वमाता पंच-अभिशा स्वभाव धारण करती है। चित्त-प्रक्षा शानरूप होती है, उसका श्रामास दस प्रकार से होता है । यही सेक का रहस्य है । इसे विमल- चन्द्र महश या श्रादश-बिंब के सहश समझना चाहिये। इसम मज्जन होता है। इसका फल होता है निर्वाण-सुख में अच्युत सहज चतुर्थ श्रधर । प्रशा ग्राहकचित्त है, और ज्ञान प्राम-चित्त है । ग्राहक-चित्त के दस प्राय श्रादर्श श्रामास-शान माझ-चित्त है । दर्पण में जैसे अपने चतु का प्रतिबिंब दीख पड़ता है,यह भी उसा प्रकार है । प्राब-चित्तम प्राहक-चित्र का प्रवेश ही सेक है। उसमें मज्जन करना चाहिये । इससे पास विषय म अप्रवात्त होती है। परंग योग में इसे ही प्रत्याहार कहते हैं। ध्यान, प्राणायाम, और धारया इन तानो का नाम मज्जन है । इस मज्जन से निर्वाण-सुख का उदय होता है । यह अच्युत होने पर भी सहब है, और प्रकर या चतुर्ष सुख है । यह शून्यताकार सर्वाकार प्रतिभास लक्षण है। इसमें कर्म-मुद्रा या बान-मुद्रारूप ख नहीं है। इसम किसी प्रकार का नहीं है। यह बाल-प्रौढ़ादि पद के प्रतीत है। यह बुख-वस्त्र या चान-वान है। यह जिस प्राचार्य को उदयगत होता