पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५७१

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श्रष्टारश अध्याय १८ विज्ञान और उनके चैत है। स्थिरमान करते हैं कि सब गालव विज्ञान परिकल्पना करते हैं, क्योंकि उनका अभूत, परिकर -२.५मार है । इसके विपक्ष में धर्मपान कहते हैं कि यह अयथार्थ है कि सत्र सासव विज्ञान परिकल्पना करते हैं। यह सत्य है कि धानुक सर्व विज्ञान 'अभून. परिवलन' कहलाते हैं। इनकी यह गंजा इसलिए है, क्योकि सासव विद्धान तय का साक्षात्कार नहीं करता । सासव चिन ग्राह्य-प्राइक के रूप में अवमामित होता है। इससे यह परिणाम सदा नहीं निकलता कि कुशल अथवा अव्याकृत चित्त में ग्राह होता है, और यह अान्मधर्म की परिकल्पना में समर्थ है। वस्तुतः इन पक्ष में बाधिनत्र तथा यानद्वय के प्रार्यों को पृलब्ध ज्ञान ( यह एक अनावर ज्ञान है ) में ग्राह होगा, क्योकि यह ज्ञान ग्राह्य-ग्राहक के रूप में अवभासित होता है। तथागत के उना ज्ञान में भी प्राह होगा, क्योंकि बुद्धभूमिमूत्र में कहा है कि बुद्ध-ज्ञान (अादर्श ज्ञान ) काय, भूमि अादि विविध प्रतिबिम्बों को अवभासित करता है। इसमें सन्देह नहीं कि यह कहा गया है कि ग्रालय-विज्ञान का आलंबन परिकल के बीज हैं। किन्तु यह नहीं कहा गया है कि वह विज्ञान केवल इनका ग्रहण करता है। मिद्धान्त यह है कि केवल दो विज्ञान--4 और सप्तम-परिकल्पना करते हैं । कारिका में जो 'येन येन विकल्पेन' उक्त है, उसका कारण यह है कि विकल्प विविध हैं । यह कौन वस्तु है जिनपर विकल्प का कारित्र होता है ? संग्रह के अनुमार यह वस्तु परतन्त्र है। यह निमित्तभाग है, क्योंकि यह भाग विकल्पक का आलंबन-प्रत्यय है । किन्तु प्रश्न है कि क्या परि- निष्पन्न भी इस चित्त का विषय नहीं है ? हमारा उत्तर है कि तत्व अथवा परिनिःपन्न मिथ्याग्राह का आलंबन विपथ नहीं है । हाँ, हम यह कह सकते हैं कि तम विकल्य वस्तु है, किन्तु तत्व पर विकल्प का कारित्र प्रत्यक्ष नहीं होला । परिकल्पित स्वभाव विकला का, मिथ्याग्राह का, विषय है; किन्तु यह आलंयन-प्रत्यय नहीं हैं। इसका कारण यह है कि यह 'यस्तु' सद्धर्म नहीं है। परिकल्पित स्वभाव क्या है ? इसमें और परतन्त्र में क्या भेद है । १. स्थिरमति के अनुसार अनादिकालिक अभूत वासनावश साना चित्त-चैत्त द्वयाकार में उत्पन्न होता है, ग्राहक-ग्राह्य रूप में उत्पन्न होता है । यह दर्शनभाग और निमित्तभाग हैं। मध्यान्त का कहना है कि यह दो लक्षण' परिकलित हैं। यह कूर्म-रोम के समान असद्धर्म हैं । किन्तु इनका आश्रय अर्थात् स्वसंचित्तिभाग प्रत्ययजनित है। यह स्वभाव असद्धर्म नहीं है। इसे परतन्त्र कहते हैं, क्योंकि यह अभूत-परिकल्प प्रत्यय-जनित है। यह कैसे प्रतीत हो कि यह दो भाग अगद्धर्म है ? अागम की शिक्षा है कि अभूत- परिकल्प परतन्त्र है, और दो ग्राह परिकल्पित हैं । २ धर्मपाल के अनुसार वासना-रल से चित्त-चैत्त दो भागों में परिणत होते हैं। यह परिणत भाग हेतु-प्रत्ययवश उत्पन्न होते हैं, और स्वसंवित्तिभाग के सदृश परनन्त्र हैं | किन्तु विकल्प सद्धर्म, अभाव, तादात्म्य, भेद, भाव-अभाव, भेदाभेद, न भाव न अभाव, न अभेद न