पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५७२

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459 ख-धर्म-दर्शन भेद इन मिथ्या संज्ञानों का ग्रहण करता है। इन विविध प्रकारों में दो भाग परिकल्पित कहलाते हैं। वस्तुतः अागम कहता है कि प्रमाणा, मात्र ( दो भाग) और इन दो भागों की विविधता परतन्त्र है । अगम यह भी कहता है कि तथना को छोड़कर शे। बार धर्म परतन्त्र में संग्रहीन हैं। यदि निमित्तभाश परतन्त्र नहीं है, तो वे दो भाग जो बुद्ध के अनासव पृष्ठलब्ध-ज्ञान हैं, परिकल्पित होंगे। यदि श्राप यह मानते हैं कि यह दो भाग परिकालात है, तो उत्तर अनास्तव ज्ञान की उत्पत्ति, विना एक निमिनभाग को आतंकन बनाये होती है। कोकि यदि एक निमित्त- भाग इसका प्रालंबन होता तो यह आर्य मार्ग में पर्यापन न होता । यदि दो भाग परिकल्पित है, तो यह अालंधन प्रत्यय नहीं है; कोंकि परिकलिगत असद्- धर्म हैं । दो भाग वामिन नहीं कर रबत, बीजी का क द नहीं कर सकत ! अन: उत्तर बीजों के दो भाग न होंगे। वीज निमित्तभाग में संगृहीत हैं, अतः यह अमद्धर्म है। अत: बीज से हेतु- प्रत्यय होगे? यदि दो भाग, जो चिन के अभ्यन्तर हैं, और नीजी से उत्पन्न होते हैं, परतन्त्र नहीं है तो जिग स्वभाव को पार परतन्त्र मानते हैं, अर्थात् संवित्तिभाग जो इन दो भागों का श्राश्रय है, परतन्त्र न होगा, क्योंकि कोई कारण नहीं है कि यह परतन्त्र हो जब दो भाग परतन्त्र नहीं है । अत: जो प्रत्ययजनित है वह परतन्त्र है। २. परतन्त्र स्वभाव 'परतन्त्र' प्रत्यय से उद्भू विकला है । यह श्राख्या 'प्रतीत्य-गमुत्पन्न' से मिलती-जुलती है । जो हेतु-प्रन्यव से उत्पन्न होता है, वह परतन्त्र है । एकमत से यह लक्षण केवल क्लिष्ट परतन्त्र का है । वास्तव में अनासव परतन्त्र को विकल्प नहीं कहते । एक दृसश मत यह है कि सत्र चिन-चैत्त, चाहे सालय हों या अनासत्र, 'विकल्प' कहे गए हैं । 1. परिनिदान स्वभा। प-िनिष्पन्न समाव परतन्त्र की परिकल्थिन से सदा रहिनता है। यह अविकारस्वभाव है । यह ग्राह्य-प्राहक इन दो विकल्लों में विनिर्मन होता है । इम स्पमात्र की सदा ग्राह्य-ग्राहक- भाव से अत्यन्त रहिनना होती है। यह कल्लित स्वभा की अन्यन्त शरता है। अतएव यह परतन्त्र से न अन्य है, और न अनन्य, यथा अनित्यता अनित्य धर्मों से न अन्य है, और न अनन्य। पुनः शुश्रान-चाँग कहते हैं कि परिनिषन्न धर्मों का वस्तुमत् , अविपरीत, निष्ठागत और परिपूर्ण सभाव है । यह तथता से, अर्थात् मत्य-असत्व से पृथक् शून्यता की अवस्था में वस्तुओं के स्वभाग से मिश्रित है। अतः परिनि पन्न। तथता ) परतन्त्र से न अन्य है, न अनन्य । यदि यह इससे भिन्न होता, तो तथता धर्मधातु ( परतन्त्र ) का वस्तुस्वभाव न