पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५७३

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अष्टादश अध्याय

जानते । होती । यदि यह इससे अभिन्न होना तो तथता न निन्य होती, और न पूर्ण विशुद्ध । पुनः यह कैसे माना जाय कि परिनिष्पन्न सभाव और परतन्त्र स्वभाव का न नानात्व है, और न एकत्व १ इसी प्रकार अनित्य, शून्य, अनात्म धर्म तथा अनित्यता, शन्यता, नैगम्य न अन्य हैं, न अनन्य । यदि अनित्यता संस्कारों से अन्य हाती, तो संस्कार अनित्य होते; यदि अनन्य होती, तो अनित्यता उनका मामान्य लक्षण न होनी। वस्तुनः धर्मता या तथता का धर्मों से ऐसा संबन्ध है, क्योंकि परमार्थ और संवृति अन्योन्याश्रिन हैं | जबतक परिनिष्पन्न का प्रनिबंध, मानान्कार नहीं होता, तबतक यथाभूत परतन्त्र भाव को हम नहीं जान सकते । अन्य ज्ञान र परतन्त्र का ग्रहगा नहीं होता | स्वभावनय का पित से अभेद इन विचारों के अनुसार शुभान-बांग चित्त का इतिहास बताते हैं। निःसन्देह सदा से चित्त-दैत अपने विविध आकारों में ( भागों में ) अपने को स्वरः जानते हैं, अर्थात् परतन्त्र जो अपने को जानता है, सदा से स्वविज्ञान का विस्य है। किन्तु किन-चत्त सदा पुद्गल-धर्मग्राह से सहगत होते हैं, अतः वह प्रत्यय-जनित चित्त-चैत्ता के मिथ्या स्वभाव को यथार्थ में नहीं माया-मच-स्वप्नावश्य-प्रतिबिम्ब-प्रतिमान-प्रतिश्रु क-उदकनन्द्र-निर्मितवत् उनका अस्तित्व नहीं है, और एक प्रकार से है मा । धनव्यूह में कहा है.--"जब तक कोई तयता का दर्शन नहीं करता, वह नहीं जानता कि धर्म और संस्कार मायादिवत् वस्तुसत् नहीं है। यद्यपि वह हैं।" अतः यह सिद्ध होता है कि सभापत्रय (लक्षणय ) का चित्त-चैत से व्यतिरेक नहीं है। चित्त-चैत्त और उनके परिणाम ( दर्शन और निमित्तभाग ) का प्रत्ययों से उद्भव होता है, और इसलिए मायाप्रनिशियन् वह नहीं है, और एक प्रकार से मानो वह हैं । इस प्रकार वह मूल पुरुषों की प्रवंचना करते हैं। यह सब परतन्त्र कहलाता है। मूढ़ परतन्त्रों को मिथ्या ही अात्म-धर्म अवधारित करते हैं। खपुष्प के समान इस 'स्वभाव' का परमार्थतः अस्तित्व नहीं है। यह परिकल्पित है । किन्तु वस्तुतः यह श्रात्म-धर्म जिन्हें एक मिथ्या संज्ञा परतन्त्र पर 'आरोपित करती है, शून्य है। चित्त के परमार्थ स्वभाव को ( विज्ञान और दो भाग ) जो श्राम-धर्म की शून्यता से प्रकाशित होता है, परिनिष्पन्न की संज्ञा दी जाती है। हम कहेंगे कि धर्मों का सत्-स्वभाव उनका विशुद्ध लक्षण या विशान- शक्ति है, जो प्रत्येक प्रकार के साक्षात्कार से शून्य है । इस स्वभाव का विपरीत भाव सर्वगत धर्म ( फेनोमनिज्म ) है, और धर्मों का स्थूल और मिथ्या अाकार आत्म-धर्म का प्रतिभास यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि इन सब की समष्टि विशुद्ध विज्ञानायतन रहता है। प्रसंस्कृत वर्मा की त्रिस्वमावता इसके अनन्तर शुआन-च्याँग इम त्रिस्वभाववाद का प्रयोग अाकाशादि असंस्कृत धर्म के संबन्ध में करते हैं। वह कहते हैं कि विज्ञान प्राकाराादि प्रभास के आकार में परिणत