पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५७५

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बादश अध्याय शून्यता की गंभीरता से संसार विज्ञानोदधि के तल पर उटना है। यदि बुद्ध ने कि सर्व धर्म निःस्वभाव हैं, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि उनमें स्वभाव का परमार्थनः अभाव है। यह बुद्धवचन नीनाथं नहीं है। परतन्त्र और परिनिष्पन्न अमन नहीं है। किन्तु मूद पुरुप विपर्यासवश उनमें ग्राम-धर्म का अध्यागोग कहते हैं । वह विपरीत भाव से उनका द्रव्यसत् श्राम-धर्म के रूप में ग्रहण करते हैं। वह परिकलियन म्वभाव है। इन ग्राहों की व्यावृत्ति के लिए भगवान् सामान्यतः कहते हैं कि जो मत् है ( दूमग-नीमग स्वभाव ) और जो अमत् है, (प्रथम स्वभाव ) दोनों निःस्वभाव हैं। यदि परिकल्पित लक्षणतः निःस्वभाव है, तो परतन्त्र ऐसा नहीं है। परतन्त्र उत्पत्ति-निःस्वभाव है। इसका अर्थ यह है कि मायावत् यह हेतु-प्रत्यय-धश उत्पन्न होता है, और यह पात्र है। यह स्वयंस्वभाव नहीं है, जैमा विपर्यास- वश ग्राह होता है। अतः हम एक प्रकार से कह सकते है कि यह निःस्वभाव है, किन्तु वस्तुतः यह मस्वभाव है। परिनि पन्न का विशेष रूप में विचार करना है। इमे भी हम उपचार में इस अर्थ में निःस्वभाव कर सकते हैं कि इसका स्वभाव किल्पिन ग्राम-धर्म से परमार्थतः शून्य है । वस्तुतः स्वभाव का इममं अभार नहीं है। यथा अद्या। मामाश सत्र रूपों की प्रावृत करता है, और उमका प्रतिषश्च करता है, नथापि मरों को निभायता को प्रकट करता है; उमी प्रकार परमार्थ शून्यना , प्राम-धर्म की निन्यभाषा में प्रकट होता है; और नि:स्वभाव कहला सक्ना है। किन्तु यह कम परमार्थ नहीं है, अनः धर्मों को शब्दमा का वचन नानार्थ नहीं है। विमिमात्रता प.मार्थ है।