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ऊनविंश अध्याय
माध्यमिक नय
[आचार्य नागार्जुन तथा चन्द्रकीर्ति के आधार पर]
माध्यमिक दर्शन का महत्त्व

आचार्य नागार्जुन मध्यमक शास्त्र के आदि आचार्य हैं। बौद्ध विद्वान् उनको अपर बुद्ध के समान मानते हैं। नागार्जुन की मध्यमककारिका पर प्रसन्नपदा नाम की वृत्ति है। उसके रचयिता आचार्य चन्द्रकीर्ति हैं। उन्होंने वृत्ति में कहा है कि नागार्जुन के दर्शन-तेज में परवादियों के मत और लोकमानस तथा उनके अन्धकार इन्धन के समान भस्म हो जाते हैं। उनके तीक्ष्ण तर्कशरों से संसारोत्पादक निःशेष अरिसेनायें नष्ट हो जाती हैं। चन्द्रकीर्ति ऐसे आचार्य के चरणों में प्रणिपात करके उनकी कारिका की विवृति करते हैं, जो तर्कज्वाला[१] से आकुलित है। प्रसन्नपदा नाम की वृत्ति के द्वारा वह आचार्य का अभिप्राय विवृत करते हैं। चन्द्रकीर्ति के अनुसार आचार्य के शास्त्र-प्रणयन का यह प्रयास दूसरों को प्रथम चित्तोत्पाद से लेकर प्रज्ञापारमिता-नय के अविपरीत ज्ञान कराने तक के लिए है। आचार्य का यह प्रयास केवल करुणावश है।

माध्यमिक दर्शन का प्रतिपाद्य

जो सकल मध्यमक शास्त्र का अभिधेयार्थ है, उससे अभिन्न स्वभाव परमगुरु तथागत का है, और वही प्रतीत्यसमुत्पाद है। इसलिए आचार्य नागार्जुन शास्त्र के आरंभ में अनिरोधादि अष्ट विशेषणों से विशिष्ट प्रतीत्यसमुत्पाद को प्रकाशित करते हैं, और उसके उपदेष्टा तथागत की वन्दना करते हैं[२]। आचार्य चन्द्रकीर्ति नागार्जुन के एक-एक विशेषणों का अभिप्राय बताते हैं।

निरोध क्षण-भंगता है, किन्तु तत्व में क्षण-भंगता नहीं है, अत: वह 'अनिरोध' है।

उत्पाद आत्मभावोन्मजन है, तत्व में आत्मभावोन्मेष नहीं है, अतः वह 'अनुत्पाद' है।


  1. 'तर्कज्वाला' आर्य भव्य की माध्यमिककारिका पर एक वृत्ति है उसका पूरा नाम 'मध्यम-हृदयवृत्ति-तर्कज्वाला' है। चन्दकीर्ति के अनुसार 'तर्कज्वाला' से आचार्य का मन्तव्य विकृत हुआ है।
  2. अनिरोधमनुत्पादमनुच्छेदमशाश्वतम्, अनेकार्थमनानार्थमनागममनिर्गमम्।
    यः प्रतीत्यसमुत्पादं प्रपञ्चोपशमं शिवं, देशयामास सम्बुद्धस्तं वन्दे वदतां वरम्॥