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४९०              बौद्ध-धर्म-दर्शन

वस्तु का स्वतः उत्पाद मानें तो उत्पन्न की ही पुनः उत्पत्ति माननी पड़ेगी। स्वतः- उत्पाद पक्ष के खंडन से परतः-उत्पाद का सिद्धांत भी सिद्ध नहीं होता। आगे चलकर हम परतः उत्पाद का खंडन करेंगे।

माध्यमिक की पक्षहीनता

माध्यमिक का अपना कोई पक्ष नहीं है, और न कोई प्रतिज्ञा ही है, जिसकी सिद्धि के लिए वह स्वतंत्र अनुमान का प्रयोग करे। माध्यमिक स्वतःउत्पादवादी सांख्य के प्रतिज्ञार्थ का केवल परीक्षण करता है । सांख्य अपनी प्रतिशा की सिद्धि के लिए सचेष्ट है, इमलिए उनके वादों का खंडन आचार्य चन्द्रकीर्ति विस्तार से करते हैं। वह कहते हैं कि किसी भी उपपत्ति से सांख्य का स्वतःउत्पादवाद संभव नहीं है । जो वस्तु स्वरूप से विद्यमान है, उसकी पुनः उत्पत्ति निष्प्रयोजन है। यदि जात स्वरूप का ही जन्म मानें तो कभी वस्तु का अजातन्त्र (विनाश ) सिद्ध नहीं होगा।

माध्यमिक पर वादियों का एक विशेष प्राक्षेप है कि माध्यमिक का जब स्वपक्ष नहीं है, तब परपक्ष के खंडन के लिए वह अनुमानादि का प्रयोग कैसे करता है। चन्द्रकीर्ति इसके समाधान में कहते हैं कि उन्मत्त के माथ तो हमारा विवाद नहीं है, प्रत्युत हेतु-दृष्टान्तवादियों के साथ है। ऐसे लोगों से विचार के लिए आचार्य को भी अपनी अनुमानप्रियता प्रकट करनी पड़ती है । वस्तुतः माध्यमिक का कोई पक्षान्तर नहीं है, इसलिए उसे अनुमान का स्वतन्त्र प्रयोग करना युक्त नहीं है । विग्रहव्यावर्तनी में आचार्य कहते हैं कि यदि मेरी कोई प्रतिज्ञा होती तब मुझ पर अनुमान संबन्धी दोष लगते, किन्तु मेरा कोई पक्ष नहीं है। मेरे पक्ष में कोई प्रतिज्ञा इसलिए भी नहीं बनती कि प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से किसी वस्तु की उपलब्धि प्रमाणित नहीं होती । उपलब्धि हो, तब उसके लिए प्रवर्तन, निवर्त्तन या उसके साधन का प्रश्न उठे । अत: हम पर अन्य वादियों का किसी प्रकार भी उपालंभ नहीं है। आर्यदेव भी कहते हैं कि सत् , असत्, सदसत् इनमें से जिसका कोई भी पक्ष ही नहीं है. उस पर चिरकाल में भी कोई दोष आरोपित नहीं किये जा सकते।

माध्यमिक को वादियों के आक्षेपों का परिहार स्वपक्ष में दोषो के अप्रसंगापादन (दोष न लगने की प्रणाली ) से करना चाहिये । यथा- स्वत: उत्पादवादी सांख्य से पूछना चाहिये कि आप कार्यात्मक स्व से स्वतः उत्पाद मानने हैं या कारणात्मक ? प्रथम पक्ष में सिद्धसाधनता (सिद्ध बात को ही सिद्ध करना ) होगी, क्योंकि कार्यात्मक का कार्यत्व स्वयं सिद्ध है, विद्यमान है। द्वितीय पक्ष में विरुद्धार्थता है, क्योंकि कारणात्मना विद्यमान की अवस्था में ही उसका विरोधी कार्यात्मकत्व भी स्वीकार करना पड़ेगा। इस तर्क में विद्यमानत्व हेतु माध्यमिक का नहीं है, इसलिए सिद्धसाधनता या विरुद्धार्थता का परिहार उसे नहीं करना है।

अन्यवादी कहते हैं कि जब माध्यमिक को स्वतन्त्र अनुमान का अभिधान नहीं करना है, और उसके पक्ष में पक्ष-हेतु-दृष्टान्त भी असिद्ध है, तो वह सांख्य के स्वतःउत्पाद के प्रतिषेध