पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५८२

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१६४ बौद्ध-धर्म-दर्शन माध्यमिक स्वतन्त्र अनुमानवादी नहीं वादी माध्यमिक पत्र पर श्रादेष करते हैं कि आपने जैसे परकीय अनुमानों को दोष-प्रस्त सिद्ध किया है, उसी रीति से अापका अनुमान-प्रयोग भी दोष-दुष्ट हो जाता है। ऐसी अवस्था में परपक्षी ही क्यों उन दोषों का उद्धार करे। उभय पक्ष के दोषों के उद्धार का दायित्व उमय पर है। अतः इन दोषों से श्राप कैसे बचते हैं । चन्द्रकीति कहते हैं कि स्वतन्त्र अनुमानवादी पर ही ये दोष लगते हैं। हम स्वतन्त्र अनुमानवादी नहीं है। हमारे अनुमानों की सफलता तो केवल पर प्रतिज्ञा के निषेध मात्र में है। जैसे स्वतन्त्र अनुमानवादी चतु के द्वारा देखना स्वीकार करता है (चक्षुः पश्यति )। माध्यमिक पूछता है कि श्राप चक्षु का श्रात्म-दर्शन (अपने को देखना ) तो स्वीकार नहीं करते और उसमें पर-दर्शन की अविनाभूतता (चत्तु का दूसरे को अनिवार्यतः देखना) स्वीकार करते हैं। हम इसके विपरीत घटादि में स्त्रात्म-श्रदर्शन के साथ पर-दर्शन के अभाव का नियम पाते है । अतः जन चक्षु में स्वात्म-दर्शन नहीं है तो परदर्शन भी सिद्ध नहीं होगा। इस प्रकार हम देखते हैं कि चक्षुरादि का नीलादि दर्शनवादियों के स्वप्रसिद्ध अनुमान के ही विरुद्ध है। माध्यमिक कहता है कि पूर्वोक्त प्रकार से हमें पर पक्ष में दोषों का उदावन मात्र कर देना है। ऐसी स्थिति में मेरे पक्ष में उक्त दोष नहीं लग पाते, जिससे समानदोफ्ता का प्रसंग उठाया जा सके। श्राचार्य चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि वादी प्रतिवादियों में किसी एक पक्ष की प्रसिद्ध मान्यता से भी अनुमान बाधित हो जाता है। जो लोग प्रमाण या दोषों का उभयवादियों से निश्चित होना श्रावश्यक मानते हैं, उनें भी लौकिक व्यवस्था के अनुमार स्ववचन से भी स्वानुमान खंडित होता है, यह मानना पड़ेगा। प्रकार केवल उभय प्रसिद्ध श्रागम से ही भागम-बाधा नहीं दी जाती, प्रत्युत स्वप्रसिद्ध बागम से भी पागम बाधित होता है । विशेषतः स्वार्थानुमान में सर्वत्र स्वप्रसिद्धि का ही महत्व है,उभय-प्रसिद्धि प्रावश्यक नहीं है। पर उत्पादवाद का खंस्म प्राचार्य स्वतःउत्पादबाद का खंडन करके परतःउत्पाद का खंडन करते हैं। भावों की परतः उत्पत्ति नहीं होती, क्योकि पर का अभाव है। पदार्थों का स्वभाव प्रत्ययादि में (जो पर है) नहीं है। मध्यमकावतार में परतः उत्पत्तिवाद के खण्डन में चन्द्र- कीर्ति ने कहा है कि अन्य की अपेक्षा से यदि अन्य उत्पन्न हो तो ज्वाला से भी अन्धकार होना चाहिये, और सब से सब वस्तुओं का जन्म होना चाहिये, क्योंकि कार्य के प्रति उससे अतिरिक अखिल वस्तुनों में परत्व अक्षुण्ण है। स्वतः परतः इन दोनों से भी भावों की उत्पत्ति नहीं होगी, क्योंकि उक्त रीति से अब तक एक-एक में उत्पाद का सामर्थ नहीं है, तो मिलित में भी कहां से पाएगा?