पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५८३

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ऊनविंशश मध्याय भावों का अहेतुतः उत्पाद भी नहीं होगा। अहेतुक उत्पाद माने तो सर्वदर्शन-संमत कार्यकारणभाव के सिद्धान्त का विरोध होगा और अहेतुक गगन-कमल के वर्ण और गन्ध के समान हेतु-शन्य जगत् भी गृहीत न होगा । श्राचार्य चन्द्रकीर्ति कहते है कि पूर्वोक स्व, पर और उभय पक्षों में ईश्वरादि का कवाद अन्तर्भूत है, अतः :न पक्षों के खंडन से ईश्वरोत्पादवाद आदि समस्त पक्ष भी निरस्त हो पाते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचार्य नागार्जुन सब प्रकार से भावों के उत्पाद- सिद्धान्त का खंडन करके पूर्वोक्त अनुत्पाद श्रादि से विशिष्ट प्रतीत्य-ममुन्पाद का मिद्धान्त सुदृढ़ करते हैं। श्रागे प्रतीत्य-समुत्पाद की सिद्धान्त संमत व्याख्या दी जाती है। प्रतीत्यसमुत्पाद प्राचार्य चन्द्रकीति 'प्रतीत्य समुत्पाद' से सापेक्ष-कारणता की सिदि के लिए उससे संबन्धित पूर्ववर्ती प्राचार्यों की विरुद्ध व्याख्याओं का निषेध करते हैं और उसका सिद्धान्त-संमत अर्थ करते हैं। चन्द्रकीर्ति के अनुसार 'प्रतीत्य' पद में प्रति, ई, का अर्थ प्राप्ति अर्थात् 'अपेक्षा है और उसका 'ल्यप् प्रत्यय के साथ योग होने पर प्राप्त कर अपेक्षा कर होने पर यह अर्थ होता है। 'समुत्पाद' शब्द सम्-उत् पूर्वक पद् धातु से निष्पन है, इसका अर्थ 'प्रार्दुभाव' है। इस प्रकार प्रतीत्यसमुत्पाद शन्द का मिलितार्थ है--"हनु-प्रत्यय की अपेक्षा करके भावों का उत्पाद या प्रादुर्भाव ।" बोसार्थक म्युत्पत्ति का खंडन-कुछ प्राचार्य 'ई' (इण्) को गत्यर्थक या विनाशार्थक मानते हैं और उसका तद्धितीय 'यत्' प्रत्यय से 'इत्य' को व्युत्पन्न करते हैं और उसका अर्थ 'विनाशी' या 'विनाशशील' करते हैं। पुनः वीप्सार्थक प्रति' से युक्त 'इत्य' का समुत्पाद के साथ समास करते हैं (प्रति प्रति इत्यानां समुत्पादः)। इस पक्ष में प्रतीत्यसमुत्पाद का समुदित अर्थ "पुनः पुनः विनाशशील भावों का उत्पाद" होता है । चन्द्रकीर्ति इस अर्थ का खंडन करते हैं। चन्द्रकीर्ति वादी-संम्मत व्याख्या की आलोचना में कहते हैं कि प्रतीत्यसमुत्पाद की वी'सार्थक व्युत्पत्ति भगवान् के कुछ वचनों में अवश्य संगत होगी । जैसे-“हे भिक्षुओ। तुम्हें प्रतीत्य-समुत्पाद की देशना दूंगा, जो प्रतीत्यसमुत्पाद को जानता है वह धर्म को जानता है" इत्यादि । किन्तु जहाँ देशना में साक्षात् रूप अर्थ-विशेष ( कोई एक अर्थ ) अंगीकृत है और उस अर्थ का विधान एक इन्द्रिय से होना बताना है, वहां प्रतीत्य समुत्पाद की वीप्सा- यंता असंगत होगी। जैसे भगवान् की यह देशना लीजिये—“चतु और रूप को पास कर चतुर्विशन उत्पन्न होता है" (चक्षुः प्रतीत्य रूपाणि च उत्पद्यते चक्षुर्विज्ञानम् )। यहां चक्षुरिन्द्रियहेतुक शान है, और वह एकार्थक है । ऐसे ज्ञान की उत्पत्ति में वीप्सार्य की पौन- -पतीपसमुल्ला यो भिक्षयो देशविष्यामि । यःमतीत्यसमुत्पादं पश्यति स धर्म परवति ।