पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५८४

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बौद-धर्म-दर्शन पुन्यता कैसे संभव होगी? (पौनःपुन्य के लिए अर्थों की अनेकता आवश्यक है)। इसके विपरीत प्रतीत्यसमुत्पाद को यदि प्राप्त्यर्थक मानते हैं तो यह दोष न होगा। क्योंकि अर्थविशेष अंगीकृत हो या न हो दोनों अवस्थाओं में प्रतीत्य की प्राप्त्यर्थता संभव है । जहाँ कोई अर्थ- विशेष ( कोई एक अर्थ ) अंगीकृत न हो उस सामान्य स्थल में प्रतीत्य का अर्थ प्राप्त कर होगा। जहाँ अर्थविशेष अंगीकृत है, वहाँ भी चक्षुःप्रतीत्य 'चक्षु प्राप्त कर' 'देख कर' अर्थ होगा। यदि कोई कहे कि विज्ञान रूपी है, उसकी चत्तु से प्राप्ति नहीं होगी। यह ठीक नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार "यह भिन्नु फल (निर्वाण ) प्राप्त है। (प्राप्तफलोऽयं भिक्षु:) इस वाक्य में प्राप्ति अभ्युपगत है उसी प्रकार यहाँ भी प्राप्ति अभीष्ट है। चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि माध्यमिक 'प्राप्य' शब्द का पर्याय प्रेक्ष्य' मानते हैं । इसे श्राचार्य अपने सूत्र में भी स्वीकार करते हैं (तत्तत् प्राप्य समुत्पन्नं नोत्पन्नं तत्स्वभावतः )। प्रत्यक्षा का संचन-कुछ लोग प्रतीत्य-समुत्पाद का अर्थ इदंग्रत्ययता मात्र करते हैं और इसमें "अस्मिन् सति इदं भवति, अस्योत्पादाद् इदम् उत्पद्यते ( इसके होने पर यह होता है, इसके उत्पन्न होने पर यह उत्पन्न होता है ) इम बचन का प्रमाण उपस्थित करते हैं। यह अयुक्त है। क्योंकि इसमें 'प्रतीत्य' और 'समुत्पाद' दोनों शब्दों के अर्थविशेष का अभिधान नहीं है, जब कि उक्त वचन में वह स्पष्ट विवक्षित है। चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि प्रतीत्यसमुत्पाद को एक रूदि शब्द भी नहीं मान सकते, क्योंकि श्राचार्य ने पूर्वोक्त वचन में स्पष्ट ही अवयवार्थों को लेकर व्याख्या की है । इसके होने पर यह होता है। इस वाक्य में भी सति-म्प्तमी का अर्थ 'प्राप्ति' या 'अपेक्षा ही है । 'हस्वे सति दीर्घ भवति' में 'हस्वे सति' का अर्थ 'हस्वता की अपेक्षा' या 'हस्वता प्रामकर' यह अर्थ है । बुद्ध-देशना की नेवार्थता और मोतार्थता प्रारम्भ में प्रतीत्यसमुत्पाद को अनुत्पादादि से विशिष्ट कहा गया है । वादी का प्रश्न है कि माध्यमिक प्रतीत्य-समुत्पाद को अनुत्पादादि विशिष्ट कैसे मानेगा, जब कि 'अविद्या' प्रत्यय से संस्कार अविद्या निरोध से संस्कार का निरोध' 'तथागत' का उत्पाद माने या अनुत्पाद मानें इन धर्मों की धर्मता स्थित है । 'सल्त्र स्थिति के लिए एक धर्म है, जो कि चार प्राहार है इत्यादि वचनों से भगवान् ने अनेकानेक धर्मों की सत्ता स्वीकार की है। इसके अतिरिक्त परलोक से इहलोक से परलोकगमन श्रादि भी संमत है। प्राचार्य चन्द्रकीर्ति कहते है कि प्रतीत्य-समुत्पाद की निरोधादि विशिष्टता श्रापाततः प्रतीत होती है । इसीलिए, मध्यमक-शास्त्र के द्वारा प्राचार्य ने सूत्रान्तों के दो विभाग उपदर्शित इहागमन, .. अविधानत्या संस्काराः विधामिरोधात् संस्कारनिरोधः । १. उत्पावाद् या समागतानामनुत्पादाद वा पागवानां स्थितवैषा मादी धर्मता । १. एको धर्मः सत्यस्थिसणे, बहुत पवार पाहाः।