पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५८५

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ऊनार्षिश मण्याय किया भगवान् के वचनों की नेयाश्रता और नीतार्थता से अपरिचित लोग उनकी देशना का अभिप्राय न जानकर पूर्वोक्त प्रकार के गन्देह करते हैं। वे नहीं जानते कि कौन-सी देशना तत्वार्थ है और कौन-सी ग्राभिप्रायिकी है। ऊपर के भगवत् वचनों में प्रतीत्यसमुत्पाद उत्पाद निरोध श्रादि से अवश्य निर्दिष्ट है, किन्तु वह अविद्या-तिमिर मे उपहत दृष्टिवालों की अपेक्षा से है न कि अनासव स्वभाव से युक्त अविद्या-तिमिर से अनुपहन शानवालों की अपेक्षा से । तत्वदर्शन की अपेक्षा से (तन्वार्थाः) भी भगवान् के वचन हैं; जैसे-'हे भिक्षुनो' ! अमोषधर्मा निर्वाण परम सत्य है, सर्व संस्कार भोरधर्मा एवं गया है । इत्यादि ।" श्रार्य अक्षयमति सूत्र के अनसार जो सूत्रान्त मार्ग ( मोक्ष साधन ) के अवतार के लिए निर्दिष्ट हैं, वे नेयार्थ हैं; और जो फल (मोक्ष) के अवतार के लिए निर्दिष्ट हैं, वे नीतार्थ है। इसलिए, प्राचार्य ने भी तयदर्शन की अपेक्षा से ही नसतः नापि परतः इत्यादि युक्तियों से जगत् की नि:स्वभावता सिद्ध की है । वस्तुतः प्राचार्य ने भगवान् की उत्पादादि देशना को मृपाभिप्रायिक सिद्ध करने के लिए ही समस्त मध्यमक-शास्त्र में प्रतीत्य-समुत्पाद का विश्लेषण किया है। एक प्रश्न है कि यदि धर्मों का मृगान्ध प्रतिपादन ही इन ममारंभ का उद्देश्य है, तो जो मृपा होता है वह सर्वथा असत् होता है । म अवस्था में सत्त्र के अकुशल-कर्म नहीं है और उसके अभाव में दुर्गतियाँ नही होगी। जब कुशल कर्म नहीं है और उसके अभाव से सुगतियों नहीं है, तो सुगति-दुर्गात के अभाव से संगार का भी अभाव होगा। ऐमी अवस्था में निर्वाण के लिए माध्यमिक का यह समस्त अाभ भी व्यर्थ होगा। चन्द्रकीर्ति कहते है कि माध्यमिक मत्लाभिनिवेशा लोक की प्रतिपक्ष भावना के लिए संवृति-सल्म की अपेक्षा स भावों का मान प्रतिपादन करता है। किन्तु कृतकार्य आर्य मृषा, अमृपा कुछ भी उपलब्ध नहीं करता, क्योकि जिसे सर्वधर्मों का मृगाव परिशात है उसके लिए न कर्म है और न संसार । वह किसी भी धर्म के अस्तित्व नास्तित्व की उपलब्धि नहीं करता। जिसे विपर्यस्त धर्मों का मृगार अवगत नहीं है, पद प्रतीत्य-समुत्पन्न भावों में स्वभावाभिनिवेश करता है । धर्मों में सत्याभिनिविष्ट व्यक्ति हा कर्म करता है, और संसरण करता है । विपर्यासाव- स्थित होने के कारण उसे निर्माण का अधिगम नहीं होता । रत्नकुट-सूत्र में उत्त है कि हे काश्या ! गवेषणा करने पर चित्त नहीं मिलता, जो मिलता नहीं वह उपलब्ध नहीं है, जो अजय न होगा वह अतीत, अनागत और प्रत्युत्पन्न .. एतदिमिक्षवः परमं सत्यं यदुत प्रमोषधर्मनिर्वाणम् । सर्वसंस्कारार मुश मोप- बर्मापः। "फेनपिण्डोपमं रूपं वेदना बुादोपमा । मरीचिसहयो संज्ञा संस्काराः कवलीनिभाः । मायोप व विज्ञानमुक्तमाविल्यबन्धुना ।।" ६३