पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५८७

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ऊमाशिवाय ४०१ परमार्य समझते हैं। आर्य लोक को अपने परमार्थ का बोध लोक की ही प्रसिद्ध उपपत्तियों से कराते है। यदि वादी कहे कि हमें पदार्थ की सत्ता का अनुभव होता है । यह माध्यमिक मत में भी ठीक है, किन्तु वह अनुभव तैमिरिक के द्विचन्द्रादि अनुभव के समान अवश्य ही मृा है। प्रमाण-द्वयताका खण्डन वादी स्वलक्षण ( पदार्थ का अमाधारण रूप ) तथा सामान्य लक्षण (पदार्थ का साधा. रण रूप ) इन दो प्रमेयों के अनुरोध से दो प्रमाण मानते हैं। किन्तु विचार करना है कि जिनके ये दो लक्षण है, उनसे पृथक् लक्ष्य है या नहीं? है; तो तृतीय प्रमेय सिद्ध होगा, फिर प्रमाण-द्वय कैमे १ नहीं है, तो वे दोनों लक्षण निराश्रय होंगे, फिर भी प्रमाण-द्वयता कैसे ? वादी कहे कि हमारे मत में जिसके द्वाग लक्ष्य लक्षित है' ( लक्ष्यतेऽनेन ) वह लक्षण नहीं है, प्रत्युत 'जो लक्षित हो' ( लक्ष्यन तदिति लक्षणम् ) वह लक्षण है। इस व्युत्पत्ति में भी जिम करण से यह लक्षिन होगा, उससे अर्थान्तरभूत कर्म मानना पड़ेगा । फिर पूर्वो क दोन श्रापतित होंग । यदि कहें कि ज्ञान अवश्य करण-साधन (जायतऽनेन इति ज्ञानम्) है, किन्तु बह स्वलक्षण के अन्तर्भूत है । यह ठीक नहीं है। अन्य पदार्थों से असाधारण (अत्यन्त भिन्न) एवं भावों का आत्मीय स्वरूप स्वलक्षण कहलाता है; जैस-पृथिवी का काठिन्य वेदना का विषयानुभव, विज्ञान की विस्य-प्रतिविप्ति । वादी के अनुसार ज्ञान का करणता अ युक्गत है ही,अब 'लक्ष्यते तत्' इस व्युत्पत्ति के आधार पर कर्मता भी अभ्युपगत होगी, जो अवश्य ही विज्ञान-स्वलक्षण से अतिरिक्त होगी। ऐसी अवस्था में पूर्वोक्त दोपों की पुनः प्रसक्ति हो जायगी। यदि वादी कहे कि पृथिव्यादि का काठिन्यादि विज्ञानगम्य है, अतः वह उसका कर्म है। इस प्रकार स्वलक्षण से कर्म अतिरिक्त नहीं होगा। बादी का यह कहना अयुक्त है । क्योंकि इस प्रकार विज्ञान-स्वलक्षण कम नहीं होगा, और कर्म के बिना स्वलक्षण प्रमेय सिद्ध नहीं होगा। इसके अतिरिक्त बादी को यमय में यह विशेष भेद करना होगा कि एक स्वलक्षण ऐसा है, जो लक्षित होता है; क्ह प्रमयभूत है । दूमरा ऐमा है, जिससे लक्षित किया जाता है। यह अप्रमेयभूत हैं । यदि दूसरे को भी पहले के समान कर्म-साधन ही मानें, तो उस कर्मभूत से अन्य कोई करण-भूत मानना ही पड़ेगा। इस दो। के परिहार के लिए यदि सानान्तर की करणता स्वीकार करें तो अनवस्था-दो होगा। स्वसंविचिका खंडन एक पक्ष है कि स्वलक्षण की कर्मता माननी चाहिये, और उसका ग्रहण स्वसंवित्ति से करना चाहिये। ऐसी अवस्था में कर्मता रहने पर भी एक प्रमेय में उसका अन्तर्भाव होगा। चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि स्वसंवित्ति प्रसिद्ध है। यह सर्वथा अयुक्त है कि स्वलक्षण स्वलक्षणान्तर से लक्षित हो, और वह भी स्वसवित्ति से; क्योंकि स्वसंवित्ति भी ज्ञान है। यदि वह स्वलक्षण से अभिन्न होगी तो अतिरिक्त लक्ष्य का अभाव होगा। ऐसी अवस्था में पूर्व रीति से लक्षण-प्रवृत्ति निराश्रय होगी।