पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५८९

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ऊनविंश अन्याय स्व अभिमत है, उनके अनुरोध से ही माध्यमिक लक्षणाख्यान क्यों न करें ? यह ठीक नहीं है । तीथिकों के युक्ति से रहित पदार्थों का माध्यमिक अग्युपगम नहीं करेंगे, अन्यथा उन्हें उनके प्रमा- णान्तरों को भी मानना पड़ेगा। वादी कहें कि 'राहोः शिरः' दृष्टान्त में शिर से अतिरिक्त राहु अर्थान्तर नहीं है, किन्तु अर्थान्तर प्रयोग होता है; इसलिए, श्राप भी इस दृष्टान्त का अनुसरण कीजिए, तो टीक नहीं; क्योंकि लौकिक व्यवहार में इस प्रकार विचार नहीं चल सकता । लौकिक पदार्थों का अस्तित्व ही अविचारमूलक है । जिम प्रकार विचार करने पर रूपादि से अतिरिक्त अात्मा सिद्ध नहीं होता, किन्तु स्कन्धों के उपादान से लोकमवृत्या ( लोक-बुद्धि से ) आत्मा का अस्तित्व है। उम प्रकार भी 'राहोः शिरः' सिद्ध नहीं होता। अतः बादी का यह निदर्शन अयुक्त है । यद्यपि माध्यमिक काठिन्यादि से अतिरिक्त पृथिवीरूप लक्ष्य नहीं मानते, इसलिए, लक्ष्यातिरिक्त निराश्रय लक्षण भी सिद्ध नहीं होता; तथापि यह लक्ष्य-लक्षण की परस्परापेक्षया सांवृतिक सत्ता मानते हैं। इस बात को सभी अवश्य मानें, अन्यथा संवृति-सत्य उपपत्तियों से वियुक्त न होगा, और संवृति भी तत्व हो जायगी। उपपत्तियों से विचार करने पर न केवल 'राहोः शिरः' का अस्तित्व असंभव है प्रत्युत उक्त युक्तियों से रूप-वंदनादि की सत्ता भी सिद्ध नहीं होगी। अतः राहोः शिरः' के समान वे असत् हो जायेंगे । किन्तु इस प्रकार की सत्ता अयुक्त है । वादी कहता है कि माध्यमिक की यह सूदमेक्षिका ( सूक्ष्म निरीक्षण ) व्यर्थ है, क्योंकि हम लोग समस्त प्रमाण-प्रमेय व्यवहार को सत्य कहाँ कहते हैं। पूर्वोक्त प्रणाली से केवल लोक- प्रसिद्धि का ही व्यवस्थापन करते हैं। माध्यमिक कहता है कि श्रापकी यह सूक्ष्मेक्षिका व्यर्थ है, जिससे आप लौकिक-व्यवहार का अवतारण करना चाहते हैं। क्योंकि हमारे पक्ष में जब तक तत्वाधिगम नहीं होता तब तक मुमुक्षु भी मोन के अावाहक कुशल मूलों के उपचय-भात्र के लिए विपर्यास-मात्र से श्रासादित इस संवृति-सत्य को मानता है। श्रापकी बुद्धि संवृति-सत्य और परमार्थ-सत्य का भेद करने में विदग्ध नहीं है, इसलिए आप लौकिक-न्याय का अनुरोध न करके उपपत्तियां देकर वस्तुतः 'संवृति' का नाश करते हैं। माध्यमिक में संवृति-सत्य के व्यवस्थापन की विचक्षणता है, इसलिए लौकिक-पक्ष का ही अनुरोध कर वह वादी के उस पक्ष का निवर्तन (उसी की मान्यताओं से) करता है, जो संवृति के एक देश के निराकरण के लिए, वह अन्य-अन्य उपपत्तियों देता है। इस प्रकार लोकाचार से भ्रष्ट लोगों को वृद्धजन जैसे उससे निवर्तन करते हैं, उसी प्रकार हम माध्यमिक लोकाचार परिभ्रष्ट वादियों का निवर्तन करते हैं; संवृति का निवर्तन नहीं करते । इस प्रकार यदि लौकिक-व्यवहार है, तो अवश्य ही उसमें लक्ष्य-लक्षणभाव भी होगा । किन्तु यह ध्यान रहे कि वह पूर्वोक्त दोषों से मुक्त नहीं होगा । परमार्थ-सत्य की दृष्टि में लक्ष्य-लक्षण दोनो की सत्ता सिद्ध नहीं होगी, फलतः प्रमाण-द्वय की सत्ता भी सिद्ध नहीं होगी।