पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५९

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किया गया है। ऐतिहासिक विद्वान् तारानाथ का विश्वास था कि तन्त्रों के प्रथम प्रकाशन के बाद दीर्घकाल तक गुरु-परंपरा के क्रम से यह साधन गुप्त रूप में प्रचलित था। इसके बाद सिड और वज्राचार्यों ने इसे प्रकाशित किया । चौगसी सिद्धों के नाम, उनके मत तथा उनका अन्यान्य परिचय मी कुछ कुछ प्राप्त हैं। नाम-सूची में मतभेद है। रससिद्ध, महेश्वरसिद्ध, नाथसिद्ध प्रभूति विभिन्न श्रेणियों के सिद्धों का परिचय मिलता है। सिद्धों की संख्या केवल ८४ ही नहीं है, प्रत्युत इससे बहुत अधिक है। किन्हीं सिद्धों की पदावलियां प्राचीन भाषा में प्रथित मिलती है। इनमें से बहुत से लोग वज्रयान या कालचक्रयान मानते थे। सहजयान मानने वाले भी कुछ थे। प्रायः सभी अद्वैतवादी थे। तिब्बत तथा चीन में प्रसिद्धि है कि श्राचार्य असंग ने तुपित-स्वर्ग से तन्त्र की अवतारणा की। उन्होंने मैत्रेय से तन्त्रविद्या का अधिकार प्राप्त किया था। यह मंत्रेय भावी बुद्ध है या मैत्रेयनाथ नाम के कोई सिद्ध पुरुष है, यह गवेषणीय है। बहुत लोग मैत्रेय को ऐतिहासिक व्यक्ति मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि वे सिद्ध थे। इस प्रसंग में नागार्जुन की भी चर्चा होती है। यह स्मरणीय है कि उनका वासस्थान श्रीपर्वत और धान्य स्टक तान्त्रिक साधना के प्रधान केन्द्र थे। आगमीय गुरुमंडली के भीतर श्रोषत्रय में मानवीध से उपर दिव्य तथा सिद्ध श्रोध का परिचय मिलता है । यह माना जा सकता है कि मैंनयनाथ उस प्रकार के सिद्धों में थे, या उसी कोटि के कोई अन्य महापुरुष थे । ऐतिहासिक पडिता के अनुसार बौद्ध-साहित्य में गुबसमाज में ही सर्व- प्रथम शक्ति आसना का मूल लक्षित होता है। अतएव असंग से मा पहल शक्ति उपासना की धारा सुदृढ़ हो चुकी थी। मातृरूप में कुमारा शक्ति की उपासना उस समय चारों ओर प्रचलित थी। इन बहिरंग अालोचनाओं का कोई विशेष फल नहीं है । वस्तुतः तंत्र का अवतरण एक गंभीर रहस्य है। शैवागमो के अवतरण के विषय में ताकि होट से प्राचार्यगण ने कहा है, उससे यह में आता है कि यह रहस्य सर्वत्र उद्घाटित करने योग्य नहीं है । तन्त्रालोक का टीका में कहा है कि परावाक् परम पराममय बोधरूप है। इसम सभी भाषा का पूर्णत्व है। इसमें अनन्त शास्त्र या ज्ञान-विज्ञान पर-बाप रूम विद्यमान है। पश्यन्ना अपरया परा वाक् की बहिर्मुखी अवस्था है । इस दशा में पूर्वोक्त पर-बाधात्मक शास्त्र 'अहंपरामश' रूप से अन्तर में उदित होता है। इसमें विमर्श के स्वभाव से वाच्यवाचक्रभाव नहीं रहता । यह श्रान्तर प्रत्यवमर्श है । यह असाधारण रूप में होना है। इसलिए इस अवस्था में प्रत्यवमर्शक प्रमाता के द्वारा परामृश्यमान वाच्यार्य अहंता से आच्छादित होकर स्फुरित होता है। वस्तु-निरपेक्ष व्यक्तिगत बोध के उद्भव की प्रणाली यही है । इसीलिए भतृहार ने वाक्यपदीय में कहा है- ऋषीणामपि यज्ज्ञानं तदप्यागमहेतुकम् । आर्ष-शान या प्रातिभ-शान के मूल में भी पागम विद्यमान है। जिसको हृदय का स्वतः स्फूर्त प्रकाश समझा जाता है, वह भी वस्तुत: स्वतः स्फूर्त नहीं है । उसके मुह में समझ जयरथ