पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५०२ वादी श्राक्षेप करता है कि माध्यमिक के मत में एक बड़ा दोष यह है कि वह शब्दों की क्रिया-कारक संबन्ध से युक्त व्युत्पत्ति नहीं मानता। किन्तु क्रिया-कारक संबन्ध से प्रवृत्त शब्दों से व्यवहार करता है। किन्तु शब्दार्थ तथा क्रिया-करणादि स्वीकार नहीं करता। माध्यमिक का उत्तर है कि आगम की प्रमाणान्तरता सिद्ध न होगी, क्योंकि हमने दोनों प्रमेयों ( स्वलक्षण, सामान्य लक्षण) को भी प्रसिद्ध कर दिया है। प्रमाणों को अपरमार्थता लोकसंमत घट का प्रत्यक्ष होना असंभव है, क्योंकि नीलादि से पृथक् घट की सत्ता नहीं है और पृथिव्यादि से पृथक् नीलादि की सत्ता नहीं है। प्राचार्य चन्द्रकीर्ति यहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण की विशेष परीक्षा करते हैं। कहते हैं कि 'घट प्रत्यक्ष है। इस लौकिक व्यवहार का प्रत्यक्ष के लवण में संग्रह नहीं होता । वस्तुतः यह अनार्य-व्यवहार है । यदि कहें कि घट के उपादान ( कारण ) नीलादि का प्रत्यक्ष प्रमाण से ग्रहण होता है, अतः कारण के प्रत्यक्ष से उपचारवश कार्य को भी प्रत्यक्ष कहा जायगा, तो इसके लिए घट में औपचारिक प्रत्यक्षता की सिद्धि प्रावश्यक होगी, और उपचार के लिए नीलादि से पृथक् घट अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध होना चाहिये, क्योंकि यदि उपचर्यमाण (श्राश्रय) ही न होगा तो उपचार किसमें होगा। अपरोक्षार्थवाची प्रत्यक्ष शब्द का अर्थ है:-विषय की सादात् अभिमुखता । घट-नीलादि को अक्ष ( इन्द्रिय ) प्रतिगत ( प्राप्त ) करते हैं, अतः वे प्रत्यक्ष हैं । इसलिए उसके परिच्छेदक शान को भी प्रत्यक्ष कहा जाता है। जैसे तृणाग्नि, तुषाग्नि । यदि प्रत्यक्ष की व्युत्पत्ति 'जिस ज्ञान का व्यापार प्रत्येक इन्द्रिय ( अहं श्रदं प्रति ) के प्रति हो' करें, तो ठीक नहीं है । क्योंकि शान का विषय इन्द्रिय नहीं होता प्रत्युत अर्थ होता है । जान का व्यापार यदि उभय (इन्द्रिय और विषय दोनों ) के अधीन माने, और इन्द्रिय की पटुता और मन्दता के भेद से सानभेद स्वीकार कर ज्ञान का व्यपदेश इन्द्रिय के आधार पर ही करें; जैसे-चक्षुर्विज्ञानादि, तथा प्रत्येक विषय के प्रति होनेवाला ज्ञान ( अर्थम्-अर्थ प्रति वर्तते ) यह व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ माने फिर भी प्रत्येक इन्द्रिय का श्राश्रय लेकर होनेवाला अर्थ-विषयक विज्ञान प्रत्यक्ष है, यही अर्थ होगा। क्योंकि अर्थ और इन्द्रिय में इन्द्रिय असाधारण है, इसलिए उसी से शान व्यपदिष्ट होता है । शान का व्यपदेश विषय से मानने पर पड्विज्ञानों में परस्पर भेद नहीं होगा । जैसे- मनोविज्ञान चतुर्गादविज्ञान के साथ किसी के विषय में प्रवृत्त होता है। ऐसी स्थिति में यदि विषय से ज्ञान का व्यपदेश करें, तो नीलादि विज्ञान मानस है या इन्द्रियज है, इसका भेद न होगा। किन्तु श्राचार्य चन्द्रकीति कहते हैं कि इस तर्क से भी प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय-व्यपदेश नहीं बनता । क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान का लक्षण 'कल्पनापोढता' (निर्विकल्प शान) है, वह विकल्प से नितरां भिन्न है। इसीलिए. स्वलक्षण, सामान्य-लक्षण दो भिन्न प्रमेय है। उन प्रमेयों के श्राधीन दो भिन्न प्रमाणों की व्यवस्था है। ऐसी अवस्था में शान का इन्द्रिय कयपदेश अकिंचित्कर है। इसलिएज्ञान की विषय से ही व्यवस्था करनी चाहिये। विशेष ध्यान देने की बात यह है कि निर्विकल्प मान प्रत्यन्न है, किन्तु उससे लोक-