पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५९१

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ऊनविंश मध्याय ५.३ व्यवहार नहीं चलता; जब कि शास्त्रको लौकिक प्रमाण-प्रमेय की ही व्याख्या करनी है । इसलिए लक्ष्य स्वलक्षण हो या सामान्य-लक्षण, साक्षात् उपलब्ध होने के कारण अपरोक्ष ही है। द्विचन्द्रादि का ज्ञान भी केवल अमिरिक ज्ञान की अपेक्षा से भ्रान्त कहा जाता है । तैमिरिक की अपेक्षा से तो वह भी प्रत्यक्ष है । इसलिए ज्ञान का विषय से ही व्यपदेश करना चाहिये। अनुमान परोक्ष-विषयक होता है, और वह अव्यभिचारी साध्य और लिङ्ग से उत्पन्न होता है । अतीन्द्रियार्थदी प्राप्त का वचन अागम प्रमाण है। अनुभूत अर्थ का सादृश्य से अधिगम उपमान है। इस प्रकार लोक इन चार प्रमाणों से अर्थ के अधिगम की व्यवस्था करता है। किन्तु ये समस्त प्रमाण-प्रमय परस्पर की अपेक्षा से ही सिद्ध होते हैं। इनकी स्वाभाविक सिद्धि कथमपि नहीं होती, इसलिए इनकी केवल लौकिक स्थिति ही सिद्ध होती है, परमार्थ स्थिति नहीं है। हेतुवाद का खस्न सर्वास्तिवादी बौद्ध हेतुवादी हैं। वे भावों के 'परतः उत्पाद' में प्रतिमन हैं । वे कहते है कि भगवान् ने हेतु-प्रत्यय, बालंबन-प्रत्यय, समनन्तर-प्रत्यय तथा अधिपति-प्रत्यय की देशना की है । इसलिए इन पृथक्-भूत चार हेतुओं से भावों की उत्पत्ति होती है । ईश्वदि जगत् के हेतु नहीं है । अतः कोई पाँचवाँ हेतु नहीं है । जो निर्वर्तक ( सम्पन्न करने वाला ) है, वह हेतु है। जो बीजभाव से अवस्थित होता है, उसे हेतु-प्रत्यय कहते हैं । जिस अालंबन में धर्म ( पदार्य) उत्पन्न होता है, यह बालंबन-प्रत्यय है । कारण का अनन्तर-निरोध ( अव्यवहित निरोध ) कार्य का समनन्तर-प्रत्यय है । जिसकी सत्ता से जिसकी उत्पत्ति होती है, उसे अधिपति-प्रत्यय कहते हैं। इन चार प्रत्ययों से भावों की उत्पत्ति होती है। श्राचार्य भावों की 'परतः उत्पत्ति' भी नहीं मानते । वे चारो हेतुओं का खंडन करते है। कहते हैं कि भावों (कार्य) की उत्पत्ति के पहले व्यस्त या समस्त रूप में यदि हेतुत्रों की सत्ता हो, तो उनसे भावों का उत्पाद सभव हो; किन्तु ऐसा नहीं है । यदि उत्पाद से पूर्व हेतु होगें, तो उनकी उपलब्धि होनी चाहिये । यदि उपलब्ध है, तो फिर उत्पाद व्यर्थ है । इसलिए यह सिद्ध है कि हेतुत्रों में कार्यों का स्वभाव ( स्वसत्ता ) नहीं है। जिनमे स्वभाव नहीं है उनसे दूसरों का उत्पाद कैसे होगा। अथवा अधिकृत बीजादि कारणों में कार्य का स्वभाव नहीं होता। ऐसी अवस्था में कार्य से कारण की परवर्तिता सिद्ध नहीं होगी। क्योंकि दो विद्यमान वस्तुओं में ही परस्परापेक्ष परत्व होता है, किन्तु बीज और अंकुर एककालिक नहीं हो सकते । इसलिए बीजादि 'पर' नहीं होगें। फिर 'परतः उत्पाद' नहीं होगा। इस प्रकार प्राचार्य हेतुओं से उत्पाद, के सिद्धान्त का खंडन करते हैं । सहेतुक किया से उत्पाद मानने वाले सिद्धान्त का भी वंटन करते हैं ।