पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५९६

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१०८ बौद्ध-धर्म-दर्शन अमिधान भी नहीं बनेगा। द्वितीय पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि गन्ता से गमन के पृथक् मानने पर घट-पट के समान गन्ता गमन-निरपेक्ष होगा तथा गमन गन्तृ-निरपेक्ष होगा। एकी- भाव या नानाभाव के अतिरिक्त अन्य कोई प्रकार नहीं है, जिससे गन्तृत्व और गमनत्वकी सिद्धि हो । देवदत्त का प्रामगमनादि सर्व प्रसिद्ध है, किन्तु माध्यमिक तर्क से इसे प्रसिद्ध करता है। तर्क यह है कि गति से गन्तृत्व अभिव्यक्त होता है, किन्तु देवदत्त गन्ता होकर गमन-क्रिया नहीं कर सकता । इसके लिए गति से पूर्व उसका गन्तृत्व सिद्ध होना चाहिये, किन्तु जिस गति से देवदत्त को गन्ता कहते हैं, उसके पूर्व गति-निरपेक्ष उसका गन्ता नाम निष्पन्न नहीं होगा। यदि कहें कि वह गति जिससे देवदत्त गन्ता है, अन्य है; और वह गति अन्य है, जिससे उसका बाना (गच्छति ) व्यवहित होता है, तो यह अयुक्त है। क्योंकि जिस गति से वह गन्ता है, उससे अतिरिक्त का गमन माने तो गति-द्वय की प्रसक्ति होगी; एक गति वह जिससे वह गन्ता है, दूसरी गति वह जिससे 'गच्छति' व्यपदेश है । इस प्रकार सद्भूत गन्ता जो गमन-क्रिया से युक्त है, असद्भूत गन्ता जो गमन-क्रिया से रहित है,सदसद्भूत गन्ता बिसका उभय पक्षीय रूप है। तीनों में गन्तृत्व नहीं बनेगा । इसी प्रकार गमन का भी विप्रकार नहीं बनेगा। इसलिए श्राचार्य नागार्जुन उपसंहार करते हैं कि गति, गन्ता और गन्तव्य कुछ भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। प्रष्टा, द्रष्टव्य और दर्शन का निषेध गति, गन्ता और गन्तव्य का खण्डन करने के पश्चात् श्राचार्य द्राष्टा, द्रष्टव्य और दर्शन का खण्डन करते हैं, जिससे भगवान् के प्रवचन' को आधार बनाकर भी भावों का अस्तित्व सिद्ध न किया जा सके । सर्वास्तिवादी छ: इन्द्रियों (द्रष्टा) और उनके विषयों ( द्रष्टव्य ) का अस्तित्व मानते हैं, जिससे दर्शनादि ( चक्षुर्विज्ञानादि ) का व्यपदेश होता है । बानकी मसिदि श्राचार्य कहते हैं कि दर्शन (चक्षु) रूप को नहीं देखता । तर्क है कि दर्शन (चक्षु) जन्न आत्मरूप को अपने नहीं देख पाता, तो श्रोत्रादि के समान नीलादि को भी नहीं देखेगा । अग्नि 'पर' को दग्ध करता है, 'स्व' को नहीं; इस दृष्टान्त के आधार पर 'दर्शन' 'घर' को ही देखेगा 'स्व' को नहीं, यदि यह कहें, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि दर्शन के समान ही अग्नि के दग्धत्व का भी हम खण्डन करते हैं । क्योंकि अग्नि के द्वारा दग्ध का दहन, अदग्ध का दहन श्रादि पक्ष अयुक्त है । इसी प्रकार प्राचार्य यह भी कहते हैं कि दृष्ट का दर्शन नहीं किया जा सकता, अदृष्ट का दर्शन नहीं किया जा सकता, प्रादृष्ट से विनिर्मुक्त दृश्यमान का दर्शन नहीं किया जा सकता। 1. अमिधर्म में एक- दर्शनं प्रवणं माणं रसनं स्पर्शनं मनः । इन्द्रियाणि परतेषां सम्यादीनि गोचरः ।।