पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५९७

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ऊनविंश मायाम आचार्य कहते हैं कि दर्शन वह है जो देखता है ( पश्यतीति )। इस स्थिति में प्रश्न है कि दर्शन-क्रिया से दर्शन-स्वभाव चक्षु का संबन्ध है, या श्रदर्शन-स्वभाव चतु का ? दर्शन-स्वभाव (दर्शन क्रिया से युक्त) चक्षु का 'पश्यति' के साथ संबन्ध उपपन्न नहीं है, अन्यथा दो दर्शन क्रियाएँ तथा दो दर्शन मानने पड़ेगे । दर्शन क्रिया-रहित रहने के कारण श्रदर्शन स्वभाव भी दर्शन नहीं करता। देश की प्रसिद्धि वादी कहता है कि हम 'जो देखता है उसे दर्शन नहीं कहेंगे, बल्कि उसे कहेंगे जिससे देखा जाता है ।' ऐसी अवस्था में करणभूत दर्शन से द्रष्टा का देखना सिद्ध होगा, और पूर्वोक दोष नहीं लगेंगे। प्राचार्य कहते हैं कि इस पक्ष में भी दर्शन की प्रसिद्धि के समान ही द्रष्टा की प्रसिद्धि है; क्योंकि द्रष्टा जब अपने स्वयं का द्रष्टा नहीं है, तो तत्संबन्धित अन्य का द्रष्टा क्या होगा ? द्रष्टव्य ( विषय ) और दर्शन (करण) भी नहीं है, कणेकि वे द्रष्ट सापेक्ष , किन्तु द्रष्टा नहीं है । यदि द्रष्टा है, तो प्रश्न है कि यह दर्शन-सापेक्ष है या दर्शन-निरपेक्ष १ दर्शन- सापेक्ष है. नो वह अवश्य ही दर्शन का तिरस्कार करके संपन्न नहीं होगा । ऐसी अवस्था में यह विचार करना होगा कि मिद्ध द्रष्टा को दर्शन की अपेक्षा है या असिद्ध द्रष्टा को । सिद्ध द्रष्टा को दर्शन की पुनः अपेक्षा व्यर्थ है । असिद्ध द्रष्टा बन्ध्यापुत्र के समान स्वयं प्रसिद्ध है, वह दर्शन की अपेक्षा ही क्या करेगा ? दर्शन-निरपेक्ष द्रष्टा तो सर्वथा असिद्ध है, अतः अविचारणीय है। इस प्रकार द्रष्टा का अभाव है, और उम के अभाव में द्रष्टव्य और दर्शन का अभाव है । द्रष्टव्य और दर्शन के अभाव से उनकी अपेक्षा से जायमान विज्ञान तथा इन तीनों से जायमान सन्निपातज स्पर्श,स्पर्शज वेदना तथा तृष्णा नहीं है । इसलिए द्रष्टव्य-दर्शन-हेतुक चार भवांग भी नहीं है । द्रष्टा के प्रभाव से जब द्रष्टव्य और दर्शन नहीं है, तो विज्ञानादि चतुष्टय कैसे होंगे ? इसी प्रकार विज्ञानादि चतुष्टय के अभाव से उनके कार्यभूत उपादानादि ( उपादान, भव, जाति, जरा श्रादि) का भी अभाव है। श्राचार्य दर्शन के समान ही श्रवण, प्राण, रसन, स्पर्शन, मन तथा श्रोत्र-श्रोतव्यादि का निरास करते हैं। रूपादि स्कन्धों का निषेध पहले चक्षुरादि इन्द्रियों का प्रतिषेध किया गया है । अब स्कन्धों की परीक्षा करते हैं। रूप भौतिक होते हैं। चार महाभूत उनके कारण है। घट पट जैसे भिन्न है, वैसे भूतों से पृथक् भौतिक रूप नहीं है । इसी प्रकार भूत भौतिकों से पृथक् नहीं है। आचार्य कहते हैं कि महाभूतों से अतिरिक्त भौतिक ( रूप ) हैं, तो अश्य ही उन भौतिकों के कारण भूत नहीं हैं। किन्तु कोई वस्तु अकारण नहीं होती, इसलिए भूतों से वियुक्त भौतिक मानना पड़ेगा। इसी प्रकार भौतिक से पृथक् भूत नहीं है, यदि कार्य से वियुक्त कारण है, तो जैसे घट से भिन्न पट घट का हेतु नहीं होता, वैसे ही कार्य से पृथक् कारण मानने पर कारण अकार्यक होगा। अकार्यक कारण कारण नहीं है ।