पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५९८

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बौद्ध-धर्म-दर्शन पुनः रूप का कारण मानें तो प्रश्न होगा कि सत् का या असत् का । उभयथा अनुपपन्न है । रूप को विद्यमानता में उसके कारण का कोई प्रयोजन नहीं है, और अविद्यमानता में कारण सुतरां व्यर्थ है । पूर्वोक्त विश्लेषण से जैसे कारण का रूप व्यावृत्त हुआ, उसी प्रकार तदपेक्ष कार्यरूप भी व्यावृत्त होगा। उभयरूप की ब्यावृत्ति से रूपगत सप्रतिष-अप्रतिष, सनि- दर्शन-अनिदर्शन, अतीत, अनागत, नीलपीतादि समस्त विकल्प निरस्त होंगे। एक प्रश्न यह भी होगा कि रूप कारण के सदृश-कार्य को उत्पन्न करता है या असहश- कार्य को १ उभयथा अनुपपन्न है । भूत कठिन, द्रव, उरण, तरल स्वभाव हैं, और बाह्य तथा आध्यात्मिक भौतिक श्रायतनों का स्वरूप उससे भिन्न स्वभाव का है। जैसे सदृश शालिबीजों में परस्पर कार्यकारणभाव नहीं होता, वैसे ही असहशों में भी कार्यकारणभाव नहीं होता, जैसे निर्वाण के साथ भूतों का कार्यकारणभाव नहीं है । रूप-स्कन्ध के ही समान वेदना, चित्त, संज्ञा, संस्कारों का भी अभाव है । श्राचार्य नागार्जुन कहते हैं कि माध्यमिक जिस प्रणाली से एक धर्म की शन्यता का प्रतिपादन करता है, उसी प्रकार सर्व धर्मों की शून्यता को प्रतिष्ठित करता है। माध्यमिक सस्वभाववादी परपक्षी के साथ विग्रह में सस्वभावता के सिद्धांत का जत्र खंडन करता है, तब किसी की भी अन्यस्वभावता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि वे सत्र माध्यसम (माध्य के समान असिद्ध अवस्था युक्त ) रहते हैं। इसलिए, प्रतिवादी वेदनादि के सद्भाव के दृष्टांत से रूप का सद्भाव मिद्ध नहीं कर सकता। माध्यमिक इसी प्रणाली से सर्वत्र प्रतिवादी के दृष्टान्तों को माध्यमम मिद्ध करके उसके परिहार के प्रयत्नों को व्यर्थ कर देता है। षड् धातुओं का निषेध अब धातुओं की परीक्षा करने हैं, और प्रमंगवश लक्ष्य-लन्नण की परीक्षा करेंगे। श्राचार्य के अनुसार धातुओं का कोई लक्षण नहीं बनता । भाकाय धातु-प्राकारा अनावण- नक्षण माना जाता है, किन्तु यह तब हो जब अना- वरण लक्षण के पूर्व लक्ष्य हो । किन्तु आकाश-लक्षण के पूर्व आकाश क्या होगा? यदि आकाश श्राकाश-लक्षण से पूर्व हो, तो वह अवश्य अलक्षण होगा। किन्तु कोई भी भाव अलक्षण नहीं होता । पुनः जब अलक्षण भाव की सत्ता नहीं है, तो लक्षण की प्रवृत्ति कहाँ होगी। लक्षण स्वीकार करें,तो यह प्रश्न होगा कि लक्षण सलक्षणमे प्रवर्तमान होगा या अलक्षण में अलवण 'गधे के सींग' के समान है, इसलिए, उसमें प्रत्ति नहीं होगी । सलक्षण में लक्षण की प्रवृत्ति का कोई प्रयोजन नहीं है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष होगा । सलक्षण और अलक्षण से अन्यत्र लक्षण की प्रवृत्ति असंभव है। लक्षण की प्रवृत्ति न होने पर लक्ष्य की सत्ता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि लक्षण की प्रवृत्ति न होने पर लक्ष्य को संभावना सुतरां निवृत्त हो जाती है। इस प्रकार लक्ष्य की अनु- पपत्ति से लक्षण असंभव है। लक्षण की असंप्रवृत्ति से लक्ष्य अनुपपन्न होता है। इसलिए लक्ष्य-लक्षण दोनों का सर्वथा अभाव है।