पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६०४

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दौड-धर्म-दर्शन सिद्धान्ती कहता है कि पदार्थ अवश्य निःस्वभाव , किन्तु बाल पृथम्बन उसमें सत्या- मिनिवेश करते हैं, और उससे व्यवहार चलाते हैं। हम लोग भी इस अविचारतः प्रसिद्ध व्यवहार को मान लेते हैं । वस्तुत: गन्धर्व नगरादि के समान लौकिक पदार्थ निरुपत्तिक है,क्योंकि अविद्यान्धकार से उपहत दृष्टि के लोग समस्त पदार्थों की श्रापेक्षिक सत्ता खड़ी किए हैं। उत्पाद की अपेक्षा उत्पाद्य और उत्पाद्य की अपेक्षा उत्पाद, निरोध की अपेक्षा निरोध्य और निरोध्य की अपेक्षा निरोध इस प्रकार लौकिक व्यवहार अभ्युपगत होते हैं। ऐसी अवस्था में दोषों का सम- प्रसंग उचित नहीं है। विरोध की निकसा का निषेध संस्कारों की क्षणिकता के लिए, सास्तिवादियों ने विनाश को अहेतुक माना है। यह ठीक नहीं है, क्योंकि निहेतुकता को स्वीकार करने से विनाश नहीं बनेगा, जैसे निहतुक खपुष्प का विनाश कहना व्यर्थ है । इसीलिए पदार्थों की क्षणिकता भी सिद्ध नहीं होती। फिर जन्न विनाश नितुक है, तो नहीं है; तब पदार्थों का संस्कृतत्व भी कहाँ सिद्ध होगा १ भगवान् ने संस्कृत लक्षणों को संस्कार-स्कन्ध में अन्तर्भूत करने के अभिप्राय से ही पदार्थों की जाति, जरा-मरणादि का वर्णन किया है । इससे विनाश का सहेतुकत्व स्पष्ट सिद्ध होता है । सिद्धान्त-संमत पदार्थों की क्षण-भंगता तो जातिमात्र की अपेक्षा से भी सिद्ध हो सकती है। वादी कहता है कि विनाश नितुक है, क्योंकि विनाश अभाव है। प्रभाव को हेतुता से क्या लेना है ? सिद्धान्ती उत्तर देता है कि इस न्याय से भाव भी नितुक होंगे, क्योंकि भाव विद्यमान है। विद्यमान को हेतु से क्या प्रयोजन १ यदि उत्पाद पूर्व में नहीं था और पश्चात् हुश्रा, इसलिए वह सहेतुक है, तो विनाश भी पहले नहीं होता, पश्चात् होता है । अापका यह कहना है कि अभाव के लिए, हेतु निष्प्रयोजन है, ठीक नहीं है। क्योंकि हेतु से विनाश का कुछ और नहीं होता, विनाश ही होता है । यदि कहो कि विनाश को क्रियमाण मानने पर वह भाव हो जायगा, तो यह युक्त ही है। विनाश अवश्य ही स्वरूप की अपेक्षा से भाव है। रूपादि निवृत्ति की अपेक्षा अभाव है। चन्द्रकीर्ति कहते है कि वास्तविक बात तो यह है कि सर्वास्तिवादी जब शून्यता को भाव-श्रमाव लक्षण मानते हैं, तो उसकी भावरूपता भी मान ही लेते हैं। क्योंकि ऐसी मान्यता में प्रभाव भी स्पष्ट ही भावरूप है । इस मावरूपता से सर्वास्तिवाद में शल्यता असंस्कृत नहीं रह जाती। वादी कहता है कि पृथिव्यादि का काठिन्यादि-लक्षण जब उपदिष्ट है, तो संस्कृत है। और उनके सद्भाव से संस्कृत-लक्षण मी है। सिद्धान्ती का उत्तर है कि उत्पाद-स्थिति-मंग लक्षण हो अब प्रसिद्ध है, तो संस्कृतों की सिद्धि कैसे होगी? और संस्कृतों की प्रसिद्धि से तदपेक्ष असंस्कृत भी प्रसिद्ध होंगे। भगवत् ने संस्कृत धर्मों के उत्पाद, पय और स्थित्यन्ययात्व के प्रशात होने की जो बात