पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६०५

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ऊनविंश मध्याय कही है, वह तथाविध विनेय जन पर अनुग्रह करने के लिए है। वस्तुतः पदार्थ स्वभावतः अनु- त्पन्न एवं विद्यमान हैं; जैसे—माया, स्वप्न, गन्धर्वनगर अादि । कर्म-कारक आदि का निषेध वादी विज्ञानादि संस्कृत धर्मों की सत्ता पर जोर देते हैं। वे कहते हैं कि भगवान् ने अविद्यानुगत पुद्गल के द्वारा पुण्य, अपुण्य, श्रानिज्य संस्कारों का अभिसंस्कार, बताया है, और कर्मों का कारक, उन कर्मों का फल, तद्विज्ञान उपदिष्ट किये हैं। अवश्य ही ये कारकादि व्यव- स्थाएँ सत् पदार्थों की ही माननी होगी। कुर्म-रोमादि के समान असत् की कर्म-कारकादि व्यवस्था नहीं होती। सिद्धान्ती कर्म-कारकादि का निषेध करता है । क्रिया व्यापार में संलग्न ही कारक रूप से व्यपदिष्ट होता है । इसलिए बादी को यह बताना होगा कि इस व्यापार का कर्ता सद्भुत है या असद्भूत या सदमद्भूत १ जो किया जाता है वह कर्म है । यह कर्ता का ईप्सिततम (तीव्र इच्छा का विषय) होता है, इसलिए आपको बताना होगा कि वह कर्म भी सन्, असत् या सदसत् में क्या है ? क्रियायुक्त (सद्भुत) कार में क्रियायुक्त सद्भूत कर्म का कर्तृत्व नहीं बन सकता, और क्रिया से रहित असद्भुत कारक क्रिया-रहित कर्म का कर्ता नहीं होता, जब कि कारक- व्यपदेश के लिए उसका क्रिया से युक्त होना आवश्यक है। किन्तु जिम किया से उसका कारकत्व ध्यपदिष्ट है, उससे अतिरिक्त दूसरी क्रिया नहीं है, जिनसे वह कर्म करे। इस प्रकार क्रिया के अभाव में जब कारक कर्म न करेगा, तब कर्म कारक-निरपेन होगा, जो असंभव है । अतः सिद्ध हुआ कि सद्भूत कारफ कर्म नहीं करता । सद्भूत कर्म को मी कारक नहीं करेगा, क्योंकि कर्म क्रिया से युक्त है और जिस क्रिया से उसका कर्मत्व व्यपदिष्ट है उससे अति- रिक्त कोई द्वितीय क्रिया नहीं है, जिससे वह कर्म हो । दूसरी क्रिया के अभाव कारक अकर्मक होगा, जो असंभव है। इसी प्रकार असद्भूत कर्म को असद्भूत कारक नहीं कर सकता, क्योंकि क्रिया से रहित कारक ( असद्भूत) और कर्म (असद्भूत) निहेंतुक होंगे । यदि अहेतुकवाद का अभ्युपगम करेंगे तो समस्त कार्यकारणभाव अपोहित हो जायगा । साथ ही क्रिया, कर्ता और करण समस्त अपोहित होंगे । क्रियादि के अभाव में धर्मनधर्मादि का प्रभाव होगा और धर्माधर्मादि के अभाव से इन्ट, अनिष्ट, सुगति,दुर्गति फलों का अभाव होगा। इन फलों के अभाव में स्वर्ग या मोक्ष के लिए मार्ग-भावना विफल होगी और उसके लिए कोई प्रवृत्ति नहीं होगी। इस प्रकार लौकिक- अलौलिक समस्त क्रियाए निरर्थक हो जायगी। अतः असद्भूत कारक असद्भूत कर्म को करता है, यह पक्ष त्याज्य है। उभय रूप कारक उभय रूप कर्म को कथमपि नहीं कर सकता है, क्योंकि वे परस्पर विरुद्ध हैं। एक पदार्थ एक ही काल में क्रिया और श्रक्रिया से युक्त नहीं होते । इसी प्रकार विषम पक्ष ( सद्भूत कर्ता से असत् कर्म, असत् कर्ता से सत् कर्म का होना आदि ) भी निषिद्ध होते हैं।