पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६११

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ऊनविंश मच्चाय प्रश्न उठता है कि श्रादिरहित संसार का अन्त कैसे माना बाय? चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि लोक में श्रादिरहित ब्रीडादि का दहनादि से अन्त देखा जाता है। भगवान् ने अवबद्ध सखों के उत्साह प्रदान के लिए लौकिक ज्ञान की अपेक्षा से ही संसार का अन्तोपदेश किया । वस्तुतः संसार नहीं है , और न उसके क्षय होने का ही कोई प्रश्न उता है। यहाँ प्रश्न उठता है कि भगवान् ने लौकिक ज्ञान की अपेक्षा से ही सही संसार का श्रादित्व भी क्यों नहीं कहा १ चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि संसार का श्रादिभाव लौकिक ज्ञान की अपेक्षा से भी सिद्ध नहीं होता। श्रादि मानने पर संसार अहेतुक होगा। पूर्वपक्षी कहता है कि संसार की आदि और अन्त कोटि न भी हो, फिर भी मध्य के सद्भाव से संसार की सत्ता सिद्ध होगी। प्राचार्य नागाईन कहते हैं कि जिसका प्रादि और अन्त न होगा उसका मध्य क्या होगा ? विपर्यस्त सत्वों की दृष्टि में ही संसार है। वस्तुत: वह संज्ञामात्र है, संसार नहीं है । और संसर्ता आत्मा भी नहीं है । श्राचार्य संसार का अभाव सिद्ध कर जाति-जरा-मरण श्रादि के पूर्वीपर क्रम या सह क्रम का निरोध करते हैं । जाति-जरा-माण में यदि जाति पूर्व है, तो वह असंस्कृत धर्मों के समान जरामरण से रहित होगी। इस प्रकार जरामरण से रहित पदार्थ की जाति स्वीकार करने पर अमरणधर्मा देवदत्त की जाति माननी होगी । ऐसी अवस्था में संसार आदिमान् होगा और अहेतुक होगा । यदि जाति से पूर्व जरामरण मानें, तो अजात का जरामरण मानना पड़ेगा। यदि जाति और जरामरण का सहभाव माने तो आयमान का मरण माना पड़ेगा, जो कथमपि युक्त न होगा, क्योंकि जाति और मरण श्रालोकान्धकार के समान परस्पर अत्यन्त विरुद्ध हैं। उनकी एक कालिकता नहीं बनेगी। श्राचार्य कहते हैं कि जैसे संसार की पूर्व कोटि नहीं है, उसी प्रकार किसी भाव की पूर्व कोटि नहीं होती, क्योंकि यदि कार्य को पूर्व और कारण को पश्चात् मानें तो कार्य निर्हेतुक होगा। यदि कारण को पूर्व और कार्य को पश्चात् माने तो कारण कार्य होगा। कार्य-कारण के इस प्रत्याख्यान से शान-ज्ञेय, प्रमाण-प्रमेय, साधन-साध्य, अवयवा-अवयवी, गुण-गुणी आदि सभी पदार्थों की पूर्व कोटि सिद्ध नहीं होती। दुख की प्रसचा पूर्वपक्षी आत्मा की सिद्धि के लिए एक अन्य पक्ष उठाता है। पांच उपादान-कन्ध दुःख हैं। उस दुःख का आश्रय होना चाहिये । वह श्रात्मा है । माध्यमिक कहता है कि दु:खा- श्रय प्रात्मा अवश्य सिद्ध होता, यदि दु:ख होता । किन्तु दुःख की सत्ता के लिए उसका स्वयं- कृसत्व, परकृतत्व, उभयकृतत्व या अहेतुकच बताना होगा। इन पक्षों में किसी के स्वीकार से उसकी सत्ता सिद्ध नहीं होती। यदि मरणान्तिक स्कन्धों की अपेक्षा करके श्रीपपत्तिक स्कन्धों का उत्पाद मानें तो दुःख स्वयंकृत सिद्ध नहीं होगा । मरणान्तिक स्कन्धों से औपपत्तिक स्कन्धों को अतिरिक्त मानने पर उसका परकृतत्व सिद्ध होता, किन्तु यह असंभव है। क्योंकि दुःख के लिए हेतु-फल-संबन्ध की व्यवस्था अावश्यक है।