पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६१३

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अगविक्ष मायाव ५२५ माध्यमिक प्रभाववादी नहीं वादी कहता है कि उपयुक्त श्रागम ने यदि श्रभाव-दृष्टि का भी प्रतिपादन नहीं किया तो क्या करता है ? प्राचार्य कहते हैं कि भगवान् के ये बचन शन्यता ( स्वभाव का अनुत्पाद ) के प्रकाशक हैं। चन्द्रकीर्ति यहाँ अनवतप्तहृदापसंक्रमण सूत्र का एक सूत्र' उद्धत कर कहते हैं- जो प्रत्ययों से उत्पन्न होता है, वह वस्तुतः अनुत्पन्न ही है, क्योंकि उसकी स्वाभाविक उत्पत्ति नहीं है । प्रत्ययाधीन उत्पत्ति से ही शून्यता उक्त हो जाती है । ऐसी शून्यता को जानने वाला प्रमाद नहीं करता । बादी कहता है कि यह अागम भावों का अनवस्थायित्वमात्र बतलाता है, भावों के स्वभाव का अनुत्पाद नहीं । भारों का स्वभाव है, क्योंकि उनका परिणाम देखा जाता है। इसके अतिरिक्त एक ओर तो माध्यमिक भावों को अस्वभाव मानते है, दूसरी ओर उसमें शून्यता-धर्म भी मानते हैं । किन्तु यदि धमी नहीं है, तो तदाश्रित धर्म कैसे उपपन्न होंगे ? अत: विपरि- णामादि की सिद्धि के लिए उन्हें भाव-स्वभावता माननी होगी। श्राचार्य कहते हैं कि यदि भावों के स्वभाव स्थित है, तो अन्यथाभाव किसका होगा। जो धर्म जिम पदार्थ को किसी प्रकार नहीं छोड़ता वह उसका स्वभाव कहा जाता है। जैसे अनि की उणता । यदि भावों का स्व-भाव मानें तो उनका अन्यथात्व ( रूपान्तरता ) नहीं बनेगा। यदि भाव अपनी प्राकृत अवस्था में ही वर्तमान रहेंगे, उनका अन्यथात्व कैसे उपपन्न होगा। युवक जत्र युवावस्था में ही वर्तमान है, तब उसका अन्यथात्व नहीं होगा । वादी के सिद्धान्त में अवस्थान्तर प्राप्ति से भी अन्यथात्व नहीं होगा, क्योंकि युवक का अन्यथात्व उसकी जीर्णता है । यदि युवक पूर्ववत् है तो उससे अन्य की ही जीर्णता माननी होगी। अन्य युवा की जीर्णता से भी उसकी जीर्णता है, तो उसका जरा संबन्ध निष्प्रयोजन होगा। यदि कहें कि युवा का ही अन्यथाभाव होगा, तो यह टीक नहीं है, क्योंकि जो जरावस्था-प्राप्त नहीं है, वह युवा है। उसे कोई जीणं भी मानें तो एक में परस्पर दो विरुद्ध अवस्थाएँ माननी पड़ेगी। यदि आप कहें कि क्षीरावस्था के परित्याग से दधि अवस्था आती है, अत: वीर दधि नहीं होता, तो हम कहते हैं कि क्या उदक दधिभाव होगा। इस प्रकार तो सस्वभाव- याद में आप किमी तरह परिणमन नहीं सिद्ध कर सकते। यापका यह आक्षेप कि शल्यता के श्राश्रय के लिए माध्यमिक को भावों को सस्वभाव मानना पड़ेगा, ठीक नहीं है। अवश्य ही शन्यता का कोई धर्म होता तो उसके श्राश्रय १. यः प्रत्पवैजापति स छातो म तस्म उत्पादु समावठोस्ति । यः माधोनु स शम्म उक्को यः सम्बतां जागति सोऽप्रमसः ।। (पृ० २५६)