पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६१४

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बौद-मान के लिए भाषों की सस्वभावता भी होती। किन्तु ऐसा नहीं है। हमारे मत में शल्यता सब धों का सामान्य लक्षण है । इसलिए कोई अन्य धर्म नहीं है । जब अन्य पदार्थ नहीं है, और असत्यता नहीं है, तब प्रतिपक्ष ( अशून्यता) से निरपेक्ष होने के कारण शन्यता भी नहीं होगी। जब शन्यता नहीं है, तो उसके श्राश्रित पदार्थ की भी सत्ता नहीं है । हमारा यह पद सुसंगत है। पूर्वपक्षी कहता है कि भगवान् ने विमोक्ष के लिए शून्यता, अनिमित्तता, अप्रणि- हितता का निर्देश किया है । यह सौगत वचन की अन्य सबसे असाधारणता है। अन्य तीर्थकों के वाद-मोह से अभिभूत इस जगत् को शिक्षा को देने के लिए. भगवान् बुद्ध ने जगत् में नैरात्म्योपदेश के प्रदीप को जलाया था। किन्तु आपने तथागत के प्रवचन का व्याख्यान करने के व्याज से शल्यता का ही प्रतिक्षेप कर दिया । सिद्धान्ती कहता है कि आप अत्यन्त विपर्यास के कारण निर्वाणपुर-गामी शिव एवं सरल मार्ग को छोड़कर संसार-कान्तार-गामी मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं। आपको जानना चाहिये कि निरवशेष क्लेश-व्याधि के चिकित्सक महावैद्यराज बुद्ध ने कहा है कि "मिथ्या दृष्टियों से अभिनिविष्ट लोगों का निस्सरण (अप्रवृत्ति ) ही शून्यता है। किन्तु जो शून्यता में भी भावाभिनिवेश (शून्यता एक तच है, ऐसा अभिनिवेश ) करेंगे, वे असाध्य हैं" क्योंकि हमारे उपदेश से उन्हें ( अभिनिवेशी को) सकल कल्पना से व्यावृत्त मोक्ष कैसे होगा ? जैसे कोई किसी से कहे कि मैं तुम्हें पैसा दूंगा, तो दूसरा कहे कि 'श्राप मुझे वही दे, कि "पण्य नहीं दूंगा"। ऐसे व्यक्ति को एण्याभाव का ज्ञान नहीं कराया जा सकता। इसी प्रकार जिन्हें शन्यता में भी भावाभिनिवेश हो जाय, उसे अभिनिवेश से कौन निषेध कर सकता है। ऐसे दोष-संजी का परम चिकित्सक तथागत ने प्रत्याख्यान किया है। मसर्मवाद का खंरन श्राचार्य भावों की निःस्वभावता सिद्ध करने के लिए पदार्थों के संसर्गवाद का खण्डन करते हैं। पूर्वपक्षी कहता है कि भावों की सस्वभावता है, क्योंकि उनका संसर्ग होता है। संस्कारों का भी परस्पर संसर्ग होता है । जब यह कहा जाता है कि चक्षुर्विज्ञान चक्षु और रूप की अपेक्षा करके (प्रतीत्य) उत्पन्न होता है, तो उससे तीनों का संनिपात या स्पर्श अभिप्रेत है । स्पर्श से वेदना श्रादि होते हैं। इसी प्रकार संज्ञा और वेदना संशष्ट हैं। इन्हें असंसष्ठ धर्म नहीं कहते । अतः संसर्ग भावों की सखभावता को सिद्ध करते हैं। प्राचार्य समाधान करते हैं कि इनका संसर्ग सिद्ध नहीं होता, क्योंकि द्रष्टव्य ( रूप ), दर्शन (चक्षु ) और द्रष्टा ( विज्ञान ) में किन्हीं दो या तीन में ( सर्वशः ) संसर्ग नहीं १. गमता सरडीम प्रोक्ता विसरणं जिनः । पे । शम्बार दिखानसावान् बमापिरे ।। (0)