पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६१६

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५२८ चौध-धर्म-दर्शन सिद्धान्ती समाधान करता है कि आपका पक्ष तब ठीक हो जब अन्यता सिद्ध हो, किन्तु यह सर्वया प्रसिद्ध है। यह बताइये कि अन्यत्व अन्य में कल्पित है या अनन्य में १ प्रथम पक्ष में अन्यत्व-परिकल्पना व्यर्थ है, क्योंकि अनायास ही अन्यत्वेन ब्यपदिष्ट पदार्थ में श्राप अन्यत्व की कल्पना करते हैं । द्वितीय पक्ष मी ठीक नहीं है, क्योंकि अनन्य एक होता है, जो अन्य का विरोधी है । अतः अनन्य में विरोधी अन्यत्व कैसे रहेगा। पूर्वपक्षी संसर्गवाद को प्रकारान्तर से पुष्ट करता है । कहता है कि दर्शनादि का त्रिक- संनिपात ( तीन का स्पर्श) है; क्योंकि दर्शनादि स्पष्टतः उपलब्ध है। सिद्धान्ती कहता है कि आपके मत में दर्शनादि का संसर्ग एकत्वेन परिकल्पित है, या अन्यत्वेन । एकल्व पक्ष में संसर्ग नहीं बनेगा, क्योंकि उदक-निरपेक्ष क्षीर का उदक से संसर्ग नहीं होता । अन्यल्व पक्ष भी प्रसिद्ध है; क्योंकि उदक से पृथक् रहकर क्षीर उदक से संसृष्ट नहीं होता । यदि पूर्वपक्षी कहे कि संसर्ग न हो किन्तु संसृज्यमान-संसृष्ट-संसष्टा तो हैं, जो संसर्ग के बिना असंभव होंगे १ श्राचार्य करते है कि जब संसर्ग ही नहीं है तो संसृज्यमानादि की सत्ता कहाँ से सिद्ध होगी। चन्द्रकीर्ति इस संसर्गवाद का निषेध केवल तर्कों के आधार पर नहीं करते, भगवद्वचन भी उद्धृत करते हैं कि चतु वस्तुतः नहीं देखता है । यह संयोग-वियोग विकल्पमात्र है'। निःस्वमावता की लिखि माध्यमिककारिका के पंचदश प्रकरण में प्राचार्य निःस्वभावता के सिद्धान्त का समारंभ के साथ समर्थन करते हैं, और श्राचार्य चन्द्रकीर्ति उसकी पुष्टि के लिए. सर्वास्तिवाद, विज्ञानवाद श्रादि का खण्डन करते हुए सस्वभाववाद की विकट परीक्षा करके उसे ध्वस्त करते हैं। बौदों में एकदेशी कहता है कि भावों का स्वभाव है; क्योंकि उसकी निष्पत्ति के लिए. ख-प्रत्ययों का उपादान होता है। उपादान खपुष्प के लिए, नहीं होता, अंकुर की निष्पत्ति के लिए बीज का तथा संस्कार के लिए अविद्या का उपादान होता है। सिदान्ती कहता है कि यदि संस्कार और अंकुरादि सस्वभाव है, और वर्तमान है तो इनके लिए हेतु-प्रत्यय व्यर्थ है। जिस प्रकार वर्तमान संस्कारादि की भूयो निष्पत्ति के लिए अवियादि का उपादान व्यर्थ है, उसी प्रकार समस्त भावों की विद्यमानता हेतु-प्रत्यय के उपादान को व्यर्थ सिद्ध करती है। अतः हेतु-प्रत्ययों के द्वारा भावों का स्वभाव सिद्ध नहीं होता । यदि कहो कि उत्पाद से पूर्व स्वभाव अविद्यमान है, हेतु-प्रत्ययों की अपेक्षा से पश्चात् उसका उत्पाद होता है, तो ऐसी स्थिति में स्वभाव कृतक होगा | किन्तु जो स्वभाव 1. सर्वमयोगि व परपति शुस्सत्र न परपति प्रस्थपडीमम् । नैव समुः प्रपश्यति रूपं तेन सयोगवियोगविकसः ।। मासोसमाभित परपति चा रूपमनोरमचित्रशिष्टम् । येन बमोगसमामितपशुस्वेन च परपति चकवाचि ।। (पृ. २५६)