पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६१७

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ऊनर्विज्ञ अध्याय १२६ है, वह कृतक कैसे होगा ? उसका स्वत्व ही जब उसकी सत्ता है (खो भावः ), तब उसे नियमतः अकृतक होना चाहिये । जैसे-अग्नि की उगता या अन्य पद्मरागादि का परागादि- स्वभाव प्राचार्य चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि स्वभाव की अकृतकता लोक-व्यवहार से व्यवस्थित है। उसके आधार पर हमने भी अग्नि की उगाता को अग्नि का स्वभाव मान लिया है । वस्तुतः औष्य भी अग्नि का स्वभाव नहीं हो सकता, क्योंकि अग्नि की उत्पत्ति मणि-इन्धन-आदित्य के समागम से तथा अरणि के निर्घषणादि के कारण हेतु-प्रत्ययापेक्ष है। अग्नि से अतिरिक्त उसकी उष्णता मंभव नहीं है, अतः जल की उष्णता के समान अग्नि की उध्याता भी उसका स्वभाव नहीं होगी प्रत्युत उसका औरण्य हेतु-प्रत्यय-जनित होने से कृत्रिम है। पूर्वपक्षी कहता है कि 'उाणता अग्नि का स्वभाव है' यह सर्वजन प्रसिद्ध है । चन्द्रकीति कहते हैं कि हमने कर कहा कि यह बाद प्रसिद्ध नहीं है। हम लोग तो इतना ही कहते हैं कि उम्णता स्वभाव नहीं है। क्योंकि वह स्वभाव-लक्षण से वियुक्त है। लोक अविद्या विपर्यास से निःस्वभाव को ही स्वभावत्वेन प्रतिपन्न करता है, और उसके अनुमार अाख्यान करता है कि 'उप्यता अग्नि का स्वलक्षण है । बालजन की प्रसिद्धि के अनुसार ही भगवान् ने अभि- धर्म में भावों का सांवृत स्वरूप व्यवस्थापित किया है। किन्तु जिनका अविद्या-तिमिर नष्ट हो चुका है, ऐसे प्रशाचतुवाले आर्य लोगों की दृष्टि से विचार करें तत्र बालजन की कल्पित सस्वभावता उपलब्ध नहीं होगी। फलनः आर्य परहिन की दृष्टि से कहता है कि 'भावों का स्वभाव नहीं है। स्वभावकााक्षण यहाँ प्राचार्य स्वभाव का अपना लक्षण बताते हैं कि स्वभाव पर-निरपेक्ष तथा अकृ- त्रिम होता है । चन्द्रकीर्ति उसकी व्याख्या में कहते हैं कि 'स्वो भावः' इस व्युत्पत्ति से पदार्थ का आत्मीय रूप स्वभाव है। अात्मीय रूप वही होगा जो अकृत्रिम होगा | जो जिसका श्रायत्त है, वह भी उसका प्रात्मीय है; जैसे-स्वभृत्य, स्वनन । इस प्रकार पर सापेक्ष और कृत्रिम पदार्थ स्वभाव नहीं होंगे। अतएव अग्नि की उष्णता हेतु-प्रत्यय से प्रतिबद्ध होने के कारण, पूर्व में न होकर पश्चात् होने के कारण, कृतक है; और अग्नि का स्वभाव नहीं है। इस प्रकार अग्नि का निजरूप अकृत्रिम है, जो कालत्रय में अन्यभिचारी है । अब प्रश्न यह है कि स्वभाव के इस लक्षण के अनुसार अग्नि का स्वभाव क्या है ? इसके उत्तर में माध्यमिक परमार्थ का संकेत करता है कि स्वरूपतः (स्वलक्षणतः ) स्वभाव 'नहीं है। किन्तु 'नहीं है' भी नहीं है ( न तद् अस्ति न चापि नास्ति स्वरूपतः )। इस रहस्य से श्रोताओं को उत्त्रास न हो, इसलिए सांवृतिक अारोपण से कहा जाता है कि 'स्वभाव है।