पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६१८

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भगवान् का वचन है कि अपरमार्थ धर्मों की देशना और श्रवण होगा। वह केवल समारोपित कों से ही देशित या भुत होता है। जो पदार्थ उपलब्ध है, उन्हें अविद्याविरहित आर्य जिस रूप में अपने दर्शन का विषय बनाता है वही उसका स्वभाव है। प्रश्न उठता है कि अध्यारोप के कारण यदि स्वभावातिरिक्तवाद सिद्ध होता है, तो वस्त की अस्तिता का स्वरूप क्या है ? चन्द्रकीर्ति उत्तर में कहते हैं कि जो धर्मों की धर्मता है, वही उसका स्वरूप है (या सा धर्माणां धर्मता सैव तत्स्वरूपम् )। धर्मों की धर्मता क्या है? पों का स्वभाव | स्वभाव क्या है। प्रकृति । प्रकृति क्या है ? शून्यता । शन्यता स्सा है। निःस्वभावता । निःस्वभावता क्या है ? तयता । तथता क्या है ? तथाभाव, अविकारिता, सदैव स्थापिता। पर निरपेक्ष तथा अकृत्रिम होने के कारण अम्न्यादि का अनुत्पाद ही उसका स्वभाव है। प्राचार्य चन्द्रकीर्ति कहते है इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि प्राचार्य ने अविद्या- तिमिर के प्रभाव से उसी का पर निरपेक्षता अकृत्रिमता श्रादि लक्षण किया है। भावों की यही अनुत्पादात्मकता स्वभाव है, जो अकिञ्चित् होने से प्रभावमात्र एवं अस्वभाव है। अतः किसी प्रकार भावों का स्वभाव सिद्ध नहीं होता। वादी कहता है कि आपके मत में भावों का स्वभाव न हो, परभाव तो है; क्योंकि उसका श्राप प्रतिषेध नहीं करते। परभाव स्वभाव के बिना असंभव है, अतः स्वभाव भी मानना पड़ेगा। सिद्धान्ती कहता है कि स्वभाव के अभाव में परभाव भी कहाँ होगा ! इतना ही नहीं, स्वभाव और परमाव के अभाव में भावमात्र नहीं होगा। इस प्रकार भाव के प्रतिषेध से प्रभाव भी प्रतिषिद्ध होता है। यदि माव नाम से कुछ होता तो उसका अन्यथामाव प्रभाव होता । बब घटादि भावरूप से प्रसिद्ध है. तो उस अविद्यमान स्वभाव के अन्ययात्व ( अभाव ) का प्रश्न ही कहाँ है ? श्राचार्य कहते हैं कि स्वभाव, परमाव, अभाव, भाव ये सर्वथा अनुपपन है। बो अविद्या-तिमिर से उपहत लोग इसकी सत्ता स्वीकार करते हैं, वे बुद्ध-शासन के तत्व को नहीं मानते। यहां आचार्य चन्द्रकीर्ति सर्वास्तिवाद और विज्ञानवाद का खंडन कर बुद्ध-वचनों का विनियोग माध्यमिक पक्ष में करते है। चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि कुछ लोग तथागत के प्रवचन का अपने को अविपरीत व्याख्याता समझते है, और कहते है कि पृथिवी का स्वभाव काठिन्य है, वेदना का स्वभाव विषयानुभव है, श्रादि । विज्ञान अन्य है, रूप अन्य है, वेदना अन्य है । इस प्रकार इनकी परभावता वर्तमानावस्था का विज्ञानादि भाव है, वह अतीतावस्थापन होकर अभाव होता है। १. अक्षरस्य धर्मस्य अतिः का देशमा का। भगते देयते शपि समारोपावकारः ॥ (३० २५०) २. पेनामलापरवति बह- सत्यमित्येवमिहामहि ॥ ( मनमकावतार २६)