पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६१९

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ऊनविंश अध्याय श्राचार्य के कथनानुसार इन मान्यताओं को मानने वाले प्रतीत्यसमुत्पाद के परम गंभीर तत्व को नहीं जानते; क्योंकि स्वभाव-परभावादि का अस्तित्व उपपत्ति-विरुद्ध है। किन्तु तथागत उपपत्ति-विरुद्ध पदार्थों के स्वभाव का वर्णन नहीं करते। सोपपत्तिक और अवि- संवादक होने से बुद्ध-वचन का प्रामाण्य है। बुद्ध-वचन का आगमत्व सिद्ध है; क्योंकि वह प्रक्षीणदोष प्राप्त के द्वारा अागत है। तत्वों का श्रागमन कराता है, अथवा तत्व के प्रति अभिमुख है या उसका प्रतिगमन करता है, और उसका आश्रय लेकर लोक निर्वाणगामी होता है। अन्य मत उपपत्ति-वियुक्त हैं, अागमामाम हैं। उनका प्रामाण्य व्यवस्थित नहीं है । स्वभाव, परभावादि का दर्शन युक्ति-विधुर है, अत: तत्व नहीं है । इमलिए श्राचार्य नागार्जुन कहते हैं कि मुमुक्षुओं के लिए भगवान ने पार्यकात्यायनाववाद सूत्र' में अस्तिवाद, नास्तिवाद दोनों का प्रतिषेध किया है। क्योंकि भगवान को भावाभाव के अविपरीत स्वभाव का यथावस्थित शान है। उन्होंने भावाभाव उभय का प्रतिपेध किया है, अतः पदार्थों का भाव या अभाव-दर्शन तत्व' नहीं हो सकता। प्रधानार्य कहते हैं कि यदि अभ्यादि का स्वभाव है, तो उस विद्यमान सद्वस्तु का अन्यथाभाव कैसे होगा ? क्योंकि जिमका प्रकृतितः अस्तित्व है, उसका नास्तित्व कैसे संभव होगा। प्रकृति का अन्यथाभाव किसी प्रकार सिद्ध नहीं किया जा सकता । किन्तु बादी 'प्रबन्धो- परम (प्रवाह का बिच्छेद ) विनाश का लक्षण मानता है। उसके मत में सभी वस्तुएँ जल की उष्णता के समान विपरिणामधर्मी हैं, अतः सिद्ध है कि पदार्थों में कहीं स्वभावता नहीं है। प्राचार्य कहते हैं कि अन्यथात्व उपलग्यमान नहीं है, क्योंकि खपुष्प के समान जो प्रकृल्या अविद्यमान है, उसका अन्यथात्य कैसा ? तथा प्रकृत्या ( स्वभावेन ) जो विद्यमान है, उसका भी अन्यथात्व कैसा? शून्यबाद उच्छेद या शाश्वतवाद नहीं प्राचार्य कहते हैं कि सिद्धान्त में अन्यथात्व दर्शन से पदार्थों की जो निःस्वभावता सिद्ध की गई है,वह परमत में प्रसिद्ध अन्यथात्व दर्शन की दृष्टि से है; क्योंकि स्वमत में कभी किसी का 1. यद्भपसा कात्यायनायं खोकोऽस्विता वाभिनिविष्टो नास्तियां च । न तेन परिमुष्यसे । जातिजराव्याधिमरणयोकपरिदेषदुःखदौर्मनस्योपायासेभ्यो न परिमुच्यते । पानगति- कारसंसारबारकागारमन्धनास परिमुच्यते । स्यादि । (पृ. २६..) २. बस्तीति काश्यप ! अयमेकोऽन्तो नास्ताति कारप! अयमेकोऽन्तः । पदेनयोरन्तबोमवं वहरूप्यमनिदर्शनमप्रतिष्ठमनाभासमनिकेतमविज्ञप्तिकमियमुज्यते कारयप । मध्यमा प्रतिपदाणा भूतमत्ययेति । तथा- प्रस्तीति नास्तीति नभेपि माता की प्रशुद्धोति हमेऽपि मन्ता | तस्माद्मे अन्तविपर्जयिषा मध्येऽपि स्थानं न करोति पण्डितः । (पृ. २००)