पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६२२

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बौर-धर्म-दर्शन है। प्राचार्य कहते हैं कि प्रात्मा स्कन्धायतन-धातु-स्वभाव नहीं है, और न उससे अतिरिक्त ही है । आत्मा स्कन्धायतन-धातुमान नहीं है, और स्कन्धायतन धातुओं में भी नहीं है। इसी प्रकार आत्मा में भी स्कन्धायतन धातु नहीं हैं। प्राचार्य संसार का एक विशेष प्रकार से खंडन करते हैं। वे वादी से पूछते हैं कि हम मनुष्योपादान ( मानव जीवन के लिए. इन्द्रियादि समस्त उपकरण ) से देवोपादान में जब जाते हैं, तो मनुष्योपादान का त्याग करके अथवा बिना त्याग किये देवोपादान ग्रहण करते हैं १ प्रथम पक्ष में पूर्वोपादान के परित्याग और उत्तर के अनुपादान के अन्तराल को पंच उपादान स्कन्धों से रहित मानना होगा। जो अनुपादान और स्कन्ध-रहित होगा, वह अवश्य ही निर्हेतुक होगा और उसकी सत्ता न होगी। द्वितीय पक्ष भी उपपन्न नहीं है, क्योंकि पूर्व के परित्याग और उत्तर का ग्रहण स्वीकार करने पर एक अात्मा की यात्मकता ( दो आत्मायें ) माननी होगी। यदि वादी कहे कि पूर्व और उत्तर भव के बीच अन्तरामविक स्कन्ध है, उससे सोपा- दानता संभव होगी, उसके आधार से संसरण होगा, किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि अन्तराभविक स्कन्ध में भी पूर्व भव के परित्याग-अपरित्याग की शंका उठेगी। जिसका समाधान नहीं है। वादी यदि त्याग और उपादान को युगपत् माने, तो हम प्रश्न करेगें कि क्या पूर्वोपादान का त्याग एकदेशेन होता है ? और वह एकदेशेन अन्तराभवोपान में संचरित होता है, अथवा सर्वा- स्मना १ प्रथम पक्ष में पूर्वोक्त द्वयात्मकता दोष का प्रसंग होगा | सीत्मना पक्ष भी पूर्वोक विभ- वता (संसाराभाव) के दोष से श्रापन होगा। इस प्रकार संस्कार या श्रात्मा का संसरण सिद्ध नहीं हुश्रा । अतः संसार का सर्वथा अभाव है। यहाँ चन्द्रकीर्ति अपनी वृत्ति में एक नए प्रकार से प्रश्न उठाते हैं और श्राचार्य के वचनों से उसका समाधान करते हैं। पूर्वपक्ष है कि संसार है; क्योंकि उसका प्रतिद्वन्द्वी निर्वाण है। समाधान में चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि निर्वाण नहीं है, क्योंकि प्रश्न होगा कि निर्वाण नित्य सत्व के लिए है या अनित्य सत्व के लिए, १ दोनों पक्ष ठीक नहीं है, क्योंकि नित्य अवि- कारी होता है और अनित्य अविद्यमान होता है, अतः निर्माण नहीं होगा । यदि कहे कि नित्यत्वेन अनित्यत्वेन अवाच्य का निर्वाण होता है, तो संसार के समान निर्वाण में भी आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करना पड़ेगा । प्राचार्य चन्द्रकीर्ति यहाँ निर्वाण के खंडन के लिए अष्ट- साहलिका तथा समाधिराजसूत्र श्रादि के उद्धरणों' से मायोपमता एवं स्वप्नोपमता सिद्ध करते हैं। निर्वाण के अभाव में संसार का भी अभाव है। प्राचार्य निःस्वभावता के खंडन के लिए बन्ध-मोक्ष का पुनः प्रकारान्तर से खंडन करते है। कहते है कि रागादि क्लेश सत्वों को अस्वतंत्र कहते है, इसलिए उन्हें धन कहा 1. नियमप्वायुष्मन् अभूते ! मायोपमं स्वप्नोपमम् । वषर्मा मापुस्मन् सुभूते मावोपमा स्पषोपमा इत्यादि।