पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६२३

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कुनर्विश अध्याय जाता है और इनसे बद्ध पृथगजन श्रधातुक का अतिक्रमण नहीं कर पाते। किन्तु यह उदय- व्ययशील क्षणिक तथा उत्पाद के परस्पर नष्ट संस्कारों को तो बद्ध नहीं कर सकते। इसी प्रकार उनका रागादि वन्धन से विच्छेद भी क्या होगा, जब कि वह असत् एवं अविद्यमान हैं। वस्तुतः बन्धनभूत रागादि उपादानों की भी सत्ता नहीं है, क्योंकि जो सोपादान है, वह बद्ध है, उसका फिर बन्धन क्या १ अनुपादान बन्धन रहित है, अतः तथागत के समान वह बद्ध न होगा । दूसरी बात यह है कि लोक में निगडादि बन्धन बन्ध्य देवदत्तादि से अतिरिक्त और उससे पूर्व सिद्ध रहते हैं, इस प्रकार बन्ध्य संस्कार हों या पुद्गल हो, उनसे पूर्व रागादि को सिद्ध होना चाहिये, जो सर्वदा अभव है; क्योंकि रागादि निराश्रय होकर सिद्ध नहीं होंगे। यहाँ वादी कहता है कि अापने मंसार और निर्वाण तथा बन्ध और मोक्ष का प्रतिषेध कर दिया । मुमुक्षुओं की शान्ति के लिए तृष्णा नदी से उत्तीर्ण होने के लिए और संसार महाटवी के कान्तार से निस्तीर्ण होने के लिए तथागत का परम आश्वासन देने वाला महाधर्मन्छन्द व्यर्थ होगा, और निर्वाण प्राप्ति के लिए श्रुत-चिन्ता-भावनादि का उपासना-क्रम भी व्यर्थ होगा। सिद्धान्ती कहता है कि हमारे मत में सर्व भाव निःस्वभाव हैं । प्रतिचित्र, मरीचिका जल, अलातचक्र के समान श्रात्मा-आत्मीय स्वभावों से रहित हैं । केवल विपर्याम से अहंमात्र का परिग्रह है, इसीलिए सत्व सोचता है कि मैं सर्वोगदान रहित होकर निर्वाण प्राप्त करूँ, और मैं धर्म-प्रतिपन्न होकर निर्वाण अवश्य लाभ करूंगा। सत्व का यह अहंकार ममकार ही सत्काय- दृष्टि का उपादान है, वस्तुतः उसका यह महाग्राह है। इस महाग्रहाभिनिवेशी के लिए शान्ति नहीं है । इसलिए मुमुन्तु के लिए ये सब परित्याज्य हैं। अन्त में प्राचार्य कहते हैं कि परमार्थ सत्य में निर्वाण का अध्यारोप अनुपलब्ध होने के कारण निर्वाण असंभव है । इसीलिए संसार परिक्षय भी असंभव है । क्योंकि जब निर्वाण नहीं है, तथा उसकी प्राप्ति नहीं है, तो संसार भी कहाँ विकल्पित होगा, जिसके क्षय के लिए उद्योग हो। कर्म, फल और उसके संबन्ध का निषेध श्राचार्य अब कर्म-फल संबन्ध की परीक्षा करते हैं । कर्मवाद के संबन्ध में तीथिकों के विभिन्न सिद्धान्तों को पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थित कर कर्म की निःस्वभावता से उसका खण्डन करते हैं। वादी कहता है कि सन्तान की अविच्छिन्नता के कारण जन्म-मरण-परंपरा तथा उसमें हेतु-फल-भाव की प्रवृत्ति होती है। उसी से संस्कार या अात्मा संसरण करते हैं। इस प्रकार कर्म-फल-संबन्ध सिद्ध होता है । माध्यमिक के मत में संसार नहीं है, और चित्त भी उत्पत्यनन्तर विनाशी है। ऐसी अवस्था में कर्माक्षेप-काल में विपाक (फल) का सदभाव नहीं होगा। अतः इस मत में कर्म-फल का संबन्ध नहीं बनेगा। संसार मानेगे तभी सत्व जन्मान्तर में अपने