पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६२४

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गौड़-धर्म-दर्शन पूर्वकृत कर्म के विपाक-फल से संबद्ध होगा। अतः कर्म-फल-संबन्ध के लिए उसका श्राश्रय संसार मानना होगा। आत्म-संयमक कुशल-चित्त पुद्गल को विषय में अस्वतन्त्र बनाता है, यानी कुशल- चित्त रागादि क्लेशों की प्रवृत्ति का निवारक होता है, और सत्य को दुर्गति-गमन से रोककर धारण करता है। इसके अतिरिक यह परानुप्राहक-चित्त और मैत्र-चित्त भी हैं। यह चित्त धर्म इस अर्थ में है कि कुगति-गमन से रोकते हैं, विधारण करते हैं। यह चित्त फल की अभिनिवृत्ति में असाधारण कारण हैं । इस जन्म और परजन्म में इनसे फल-निष्पत्ति होती है। इस चित्तात्मक धर्म के अतिरिक्त भगवान् ने दो और धर्मों ( कर्मों) की व्यवस्था की है- चेतना-कर्म और चेतयित्वा कर्म । इन दो कर्मों के अनेक भेद होते हैं। मनोविज्ञान संप्रयुक्त चेतना मानस-कर्म है । चेतना से चिन्तित और काय-वाक् से प्रवर्तित कर्म चेतयित्वा-कर्म है । इन कायिक-वाचिक-मानसिक कमों के प्रधानतः सात भेद होते हैं-कुशल-अकुशल वाक्- कर्म, कुशल-अकुशल काय-कर्म, कुशल अविशति-कर्म, अकुशल श्रविशति-कर्म, परिभोगान्वय पुण्य, परिभोगाव्य अपुण्य, चेतना । यहां प्रश्न उठता कि उक्त कर्म क्या विपाक-काल तक स्थित होते हैं । अथवा नष्ट हो जाते हैं । यदि उत्पन्न कर्म विपाक-काल तक स्वरूपेण अवस्थित होते हैं, तो इतने काल तक अविनष्ट होने के कारण इन्हें नित्य मानना होगा। पश्चात् भी उनका विनाश नहीं होगा। क्योंकि विनाश-हित अाकाशादि का पश्चात् विनाश नहीं होता। कर्म यदि उत्पादान्तर विनाशी हैं, तो वह अपनी अविद्यमान-स्वभावता के कारण ही फलोत्पादन नहीं करेंगे। क्षणिकवाद में कर्मफल की अवस्था निकायान्तरीय स्वमत से इसका परिहार करता है कि संस्कार उत्पत्यनन्तर विनाशी हैं, फिर भी हमारे मत में दोष उपपन्न न होंगे। यह कहना कि निरुद्ध कर्म फलोत्पाद नहीं करेंगे, ठीक नहीं है । बीज दणिक है, किन्तु उसमें अंकुर कांड-नाल-पत्र स्वजातीय फल-विशेष की निष्पत्ति का सामर्थ्य है । अतः बीज अंकुरादि का कारण बन स्वयं निरुद्ध हो जाता है। हाँ, बीज यदि अंकुरादि-संतान का प्रसव न करे और अग्नि अादि विरोधी प्रत्ययोसे पहले ही नष्ट हो बाय, तो उसका उच्छेद माना जायगा । बीज निरुद्ध न हो और अंकुरादि संतान का प्रवर्तन करे, तब उसका शाश्वतत्व माना जायगा। किन्तु बीजास्दृष्टान्त में दोनों का अभाव है, अतः बीच में शाश्वतोच्छेद दोष नहीं लगेंगे। निकायान्तरीय पूर्वोक्त बीजांकुर दृष्टान्त के समान ही कुशल या अकुशल चेतना-विशेष को चित्त सन्तान का हेतु मानता है । कुशल चित्त हत् के चरम चित्त के समान भावि चित्त-सन्तान का हेतु न होकर निरुद्ध हो जाय, तब कर्म को को उच्छिन कह सकते हैं, और भावि सन्तान को उत्पन्न करके भी स्वरूप से प्रच्युत न हो तो कर्म को शाश्वत कहेंगे। किन्तु यहां दोनों नहीं है, अतः कर्म की क्षणिकता के सिद्धान्त में पर उनोद या शाश्क्तत्व का अारोप नहीं लगेगा।