पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६२५

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ऊनाविश अध्याय 'विप्रणाश' से कम-फल व्यवस्था कोई अन्य नैकायिक पूर्वोक्त ममापान में दोषोभावन कर स्वमत से पूर्वोक्त आक्षेपों का परिहार करता है | कहता है कि श्राप यदि बीजांकुर दृष्टान्त से चित्त-मंतान के पूर्वोक्त दोषों का परिहार करेंगे, तो अवश्य ही अापके पक्ष में बहुत बड़े-बड़े अपरिहार्य दोष लगेंगे । जैसे अापके मन में शालि-बीज से मजानीय शारयंकुर की ही सन्तान प्रवृत्त होगी, विजातीय की नहीं । इसी प्रकार कुशल-चिन मे समानजातीय कुशल चित्त-सन्तान उत्पन्न होगी। काम, रूप या श्रारून्य के अनासक चित्त में तत्तत् लोकों के अनास्रव चित्त ही उत्पन्न होंगे । मनुष्य चित्त से मनुष्यचित्त, देवचित्त मे देवचित्त, नाम्नचित्त से नारचिन उत्पन्न होंगे । इसी प्रकार देव- मनुष्य अकुशल कर्म भी करें फिर भी गति, योनि, वर्ण, बुद्धि, इन्द्रिय, बल, रूप, भोग श्रादि की विचित्रता न होगी। अतः यह परिहार पूर्ण नहीं है । वस्तुना जब कर्म उत्पन्न होता है, तो उसके माथ संतान में एक 'अविप्रणाश' नामक धर्म भी उत्पन्न होता है। यह विप्रयुक्त धर्म है । जैसे ऋण-पत्र लिग्व लेने से धनिक के धन का नाश नहीं होता, बल्कि कालान्तर में ब्याज के माथ मिलना है, उसी प्रकार कती-कर्म के विनष्ट होने पर भी इम 'श्रावणाश' धर्म के अवशान में फन अभिबृद्ध होता है। जैसे ऋणपत्र दाता का धन लौटाकर निभुत है, अत. व यमाग हो वा अश्यिमान पुनः धनाभ्यागम नहीं कर मकेगा; उसी प्रकार 'अविनगश' विपाक प्रदान कर निर्मुक्त ऋण-पत्र के समान कर्ता का विपाक में पुनः संबन्ध नहीं करायेगा। 'अधिप्रणाश' काम, रूप, अारू प्यायचर, अनासव के भेद से चतुर्विध है; तथा प्रकृतितः अन्याक्त है । 'अविनाश' दर्शन-पहेय नहीं है, किन्तु भावना-प्रद्देय है। यह 'अविप्रणाश' कर्म-विनाश से विनष्ट नहीं होता और धर्म-प्रदान से प्रीण नहीं होता। मलिए अविपणाश स कर्म-फा संपन्न होते हैं । इस मा में पृथगबन के. कर्म के मनान यदि दर्शन मार्ग से 'अवि- प्रगाश' का प्रहाण हो तो कर्मों का विनाश मानना पड़ेगा और उसे प्रार्थों का इष्टानिष्ट कर्म- फल पूर्वकर्मों के फल न होंगे। सभोग और विमभाग ममल कर्मों के काम, रूप और ग्रारूप्य समस्त धातुओं के प्रतिमधियों में मर्च कमी का अपमदन 'अधिप्रणाश' श्रम उत्पन्न होता है। चेतना-स्वभाव या चेतयित्वा-स्वभाव, सासव या अनास्तव, मभी कर्मों का एक एक 'अवि- प्रणाश' उत्पन्न होता है। वहां याविषगाश' विपाकों के विपच होने पर भी अवश्य ही निरुद्ध नहीं हो जाना, किन्तु निमुक्त ऋणपत्र के समान विद्यमान होने हु" भी पुनः विपाक नहीं करता। फल व्यतिक्रम या मरग में 'अभियगारा' निमद्ध होता है और वह सासवों का सासव-फल अनासवों का अनालय-फल देता है । 'अविनणारा' का इसलिए भी महत्व है कि कृत फर्म निरुद्ध हो जाता है, क्योंकि उनकी स्वभाव-स्थिति नहीं है। कर्म की निःस्वभावता से ही शल्यता उपपन्न होती है,किन्तु कर्म के इस अनवस्थान मात्र से उच्छेद नहीं हो जाता, क्योंकि 'अविप्रणाश' के परिग्रह से ही कर्म विपाक का समभाव मिद होगा । शाश्वतवाद का भी प्रसंग नहीं होगा, क्योंकि कर्म का स्वरूपेगा अवस्थान नहीं है । विप्रणाशांदी कहता है कि