पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चौव-धर्म-दर्शन अंग अदम्य फैसे होंगे ? योगी जैसे श्रात्म-नैरात्म्य में प्रतिपन्न होता है, वैसे ही श्रात्मीय स्कन्ध-वस्तुओं में भी नैरात्म्य-प्रतिपन्न होता है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि नैरात्म्य- प्रतिपत्ता योगी की सत्ता है, जिससे प्रात्मवाद सिद्ध हो; क्योंकि श्रात्मा और स्कन्ध के प्रतिषिद्ध होने पर कौन दूसरा परमार्थतः शेष बचेगा, जो निर्मम और निरहंकार होगा । अात्मा-प्रात्मीय की अनुपलब्धि से सत्कायदृष्टि प्रहीण होती है, और सत्कायदृष्टि के प्रहाण से--काम, दृष्टि, शीलवत, अात्मवाद–चतुष्य का क्षय होता है। उसके क्षय से पुनर्भव का क्षय होता है। भव के निरुद्ध होने पर जाति-जरामरणादि समस्त निबद्ध होते हैं। इस प्रकार कर्म और क्लेश के क्षय से मोक्ष होता है। कर्म-क्लेश विकल्प से प्रवर्तित हैं । विकल्प अनादि संसार के अनादि काल से अभ्यस्त ज्ञान-जेय, वाच्य-वाचक, कर्ता-कर्म, करण-क्रिया आदि विचित्र प्रपंच से उपजात हैं। ये समस्त लौकिक प्रपंच सर्व भाव-स्वभावों के शू यता दर्शन से निरवशेष निरुद्ध होते हैं। यहाँ चन्द्रकीर्ति शून्यता के निर्वाण-स्वरूप को स्पष्ट करते हैं। कहते हैं कि वस्तुओं की उपलब्धि होने पर ही समस्त प्रपंच-जाल खड़ा होता है। क्योंकि रागी पुरुष बन्ध्या-दुहिता के प्रति उसके रूप-लावण्य-यौवन से प्राकृत होकर कैसे राग-प्रपंच का अवतारण नहीं करता ! यदि राग न हो तो तद्विषयक विकल्प न हो, और कल्पना-जाल न बिछ। फिर सत्काय-दृष्टिमूलक क्लेश उत्पन्न न हो, और शुभ-अशुभ-श्रानिज्य कर्म न किये जाय, तो जाति, जरा-मरण, शोक, परिदेव, दुःख, दौमनस्यादि का जाल रूप इस संसार कान्तार का अनुभव ही न हो । योगी शून्यता की दर्शनावस्था में स्कन्ध, धातु और आयतनों को स्वरूपत: उपलब्ध नहीं करता। वस्तु के स्वरूप की अनुपलब्धि से तद्विषक प्रपंच का और विकल्प का अवतारण नहीं होता। चत्र विकल्प उत्थित न होंगे तो 'अहं' 'मम' के अभिनिवेश से सत्कायष्टिमूलक क्लेशगण भी उत्पन्न नहीं होंगे, और उससे प्रेरित कर्म न होंगे। कर्म के अभाव से जाति-जरा-मरणाख्य संसार का अभाव होगा। इस प्रकार अशेष प्रपञ्चों के उपशम स्वरूप एवं शिवलक्षण शुन्यता का बोध प्राप्त करने पर अशेष कल्पना-जाल का विगम होता है, प्रपंच के विंगम से विकल्प की निवृत्ति होती है, कर्म-क्लेश की निवृत्ति से जन्म की निवृत्ति होती है । इस उपर्युक्त क्रम को दिखलाते हुए अन्त में प्राचार्य चद्रकीर्ति कहते हैं कि शून्यता का लक्षण सर्व प्रपञ्च-निवृत्ति है। इसलिए वही निवारण है। प्राचार्य कहते हैं कि भावविवेक के अनुसार श्रावक और प्रत्येकबुद्ध को उपयुक्त शत्यता के बोध की प्रतिपत्ति नहीं होती, किन्तु प्रति क्षण, उत्पन्न-विनश्वर संस्कार-कलाप की अनात्मता तथा अनात्मीयता का बोध होता है । इस प्रकार श्रार्य श्रावक को आत्मा-श्रात्मीय के श्रभाव-बोध के कारण धर्म-मात्र की उत्पत्ति और संहार का दर्शन होता है। इस क्रम से श्रार्य भावक, निर्मम और निरहंकार होता है । श्रावक की यह अवस्था निर्विकल्पक प्रजाचारविहारी महाबोधि सत्व के सर्व संस्कारों की अजातता-दृष्टि से पूर्व की है। प्राचार्य चन्द्रकीर्ति भावविवेक के इस मन को प्राचार्यपाद के और बागमों के मत के विकत बताते हुए उसका खण्डन करते हैं।