पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६२९

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ऊनविंश अध्याय ५०१ अनारमसिद्धि में पागम बाधक नहीं श्राचार्य वादी की इस अाशंका का परिहार करते हैं कि यदि अध्यात्म और वाम सर्वथा फल्पित हैं, तो भगवान् का यह बन्चन माध्यमिक मत के विरुद्ध होगा कि-"प्रात्मा का नाथ आत्मा ही है 'कृत-अपकृत का साक्षी और अात्मा का साक्षी आमा नहीं है। चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि क्या भगवान् ने यह नहीं कहा है कि"-सत्व या आत्मा नहीं है, और धर्म सहेतुक हैं" । वस्तुतः आत्मा रूप या रूपवान नहीं है, रूप में प्रात्मा या श्रात्मा में रूप नहीं है । इस प्रकार विज्ञानादि के साथ ग्राल्मा का व्यतिरेक करना चाहिये। इस प्रकार सर्व धर्म अनात्म हैं । किन्तु अब प्रश्न होता है कि भगवान् के पूर्ववचन से परक्चन का विरोध कैसे दूर हो ? चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि भगवान् बुद्ध शामन की नेयार्थता तथा नीतार्थता में सामान्यतः भेद करना चाहिये । अचार्य नागार्जुन कहते हैं कि-"भगवान् ने श्रात्मा का प्रज्ञापन किया और अनात्मा की भी देशना की। किन्तु वस्तुत: बुद्ध ने अात्मा-अनात्मा की कुछ भी देशना नहीं की।" StaM के इस उपर्युक्त बनन का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए. चन्द्राति ने कहा है कि आत्म-भाव के विपर्यास से घनतिमिर से आच्छादित नयन के समान जिन लोगों की बुद्धि सर्वथा श्राच्छादित है, व यद्यपि व्यवहार-मल्य में स्थित है और लौकिक विषयों के ग्राही भी है, तथापि वे पदार्थ या वास्तविकता का दर्शन नहीं करते । वे बुद्धि को श्रोदन-उदक-किण्वादि द्रव्य-विशेष के गमान कजलादि महाभूनों के परिपाक मात्र से संभूत मानते हैं । ये वादी पूर्वान्त और अपरान्त का अपवाद करते हैं और प्रात्मा तथा पर नोक का निषेध करते हैं । इनके मत में इहलोक परलोक नहीं है; मत्व मुक्त-दुःकृत कर्मों का विपाक नहीं है। इस सिद्धान्त से सस्त्र स्वर्गादि इष्ट फल-विशेष की प्रामि के उद्योग से पराङ्मुख होंगे और अंकुराल कमों के श्रभिसंस्कार में प्रवृत्त होकर नरकादि के महाप्रपात में पतित होंगे। इन वादियों को इस असत् दृष्टि से निवृत्त करने के लिए. भगवान् ने सत्यों के चौरासी हजार चित्त-चरितों का भेद किया । हीन-मध्य और उत्कृष्ट विनेय जनों पर अनुग्रह करके भिन्न-भिन्न वासनाओं का अनुवर्तन कर सबको भव से उद्धार करने की दृढ़ प्रतिज्ञा में तत्पर होकर तथागत ने कहीं-कहीं अपने प्रव- चनों द्वारा लोक में आत्मा की भी व्यवस्था की है। पूर्वोक्ति से अतिरिक्त दूसरे प्रकार के वे लोग हैं जो अकुशल कर्म-पथ से व्यावृत्त है, किन्तु श्रात्म-दृष्टि के कारण अात्मा-ग्रामीय मात्र के स्नेह-सूत्र से इतने श्राबद्ध है कि धातुक भव को अतिक्रान्त करके शिव,अजर, अभर, निर्वाण पुर का अभिगमन नहीं कर सकते । ये विनेय- जन मध्य प्रकार के हैं । इनके सत्काय-दर्शन संबन्धी अभिनिवेश को शिथिल करने के लिए और निर्वाण की अभिलाषा को उत्पन्न करने के लिए भगवान् ने अनात्मा की देशना की है। किन्तु जिनका पूर्व पूर्व अभ्यासों से अधिमोक्ष-बीज परिपका है, और निर्वाण प्रत्यासन्न है, वे उत्कृष्ट कोटि के विनेय जन हैं। ऐसे अात्मस्नेह रहित विनेय मौनीन्द्र तथागन के परम गंभीर