पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६३१

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ऊनविंशमध्याय ५४१ प्राचार्य चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि माध्यमिक प्रतीत्यसमुत्पादवादी हैं। वह हेतु-प्रत्यय की अपेक्षा करके जगत् का उत्पाद मानते हैं । इसलिए वह इहलोक-परलोक समस्त को निःस्वभाव कहते हैं। केवल वस्तु के रूप की अविद्यमानता मानने के कारण माध्यमिक उसके नास्तित्व में प्रतिपन्न है, इतने से नास्तिकों से इनकी समानता नहीं है, क्योंकि माध्यमिक जगत् की मांवृतिक सत्ता को स्वीकार करते हैं । यद्यपि वस्तु की अस्वीकृति दोनों में तुल्य है, तथापि प्रतिपत्ता का भेद है। जैसे किसी चोर ने चोरी की । उस चोर के किसी शत्रु ने किसी को प्रेरित किया कि इसने चौर्य किया है । प्रेरित पुरुष सत्य नहीं जानता, किन्तु चोर को कहता है कि इसने चोरी की है। एक अतिरिक्त व्यक्ति है, जिसने चोर को चोरी करते देखा था, वह भी कहना है कि इसने चोरी की है। इन दोनों में चोर के चौर्य को लेकर कहने में कोई भेद नहीं है; किन्तु परिज्ञातृत्व ( जानकारी ) के भेद से भेद है। उनमें पहला मृपावादी है, दूमग़ सत्यवादी है । सम्यक् परीक्षा करने पर पहला अयश और अपुण्य का भागी होगा, दूसरा नहीं । इसी प्रकारयहाँ भी माध्यमिक तो वस्तु के स्वरूप से यथायन् विदित है, और उसी के अनुसार वह कहता भी है, दूसरे नहीं । ऐसी अवस्था में वस्तु के बाह्य स्वरूप के अभेदमात्र से अविदित वस्तुवादी नास्तिकों के साथ विदित वस्तुवादी माध्यमिक को ज्ञान तथा अभिधान में ममानता कैसे हो सकती है। तल्लामृतावतार देशना पहले कहा है कि धर्म अनुत्पन्न और अनिरुद्ध हैं। इसलिए उसकी देशना में वाक् और चित्त की प्रवृत्ति नहीं होगी, किन्तु देशना के अभाव में इस नत्त्व का ज्ञान लोगों को नहीं होगा। इस विनेय को उस तव में अवतरित करने के लिए, संवृतिसत्य की अपेक्षा सही देशना की अानुपूर्वी (क्रम) होनी चाहिये | भगवान की इस देशना को 'तस्त्राभृतावतार देशना' कहते हैं, जिसकी एक सांवृत अनुपूर्वी भी होती है। किन्तु यह सब कुछ विनेयों के स्वप्रसिद्ध अर्थ का श्रानुरोध करके ही है। सूत्र में कहा है-जैसे म्लन्छ को अन्य भाषा का ज्ञान नहीं कराया जा सकता, वैसे ही लोक को भी लौकिक भाषा के बिना ज्ञान नहीं कराया जा सकता। भगवान् ने 'सर्व तथ्यम' का उपदेश दिया। यह उपदेश उन विनेय जनों की दृष्टि से है, जिन्होंने स्कन्ध-धातु-अायतन आदि की सत्य कल्पना की है, और उसके अनुसार उपलब्धि करते हैं। इससे विनेय का यह निश्चय दृढ़ होता है कि भगवान् सर्वच एवं सर्वदशी है; क्योंकि उन्होंने भवाय ( भव चक्र का अन्त ) पर्यन्त के भाजनलोक और सतलोक की स्थिति, उत्पाद, प्रलयादि का ठीक-टीक उपदेश किया है ! भगवत् के प्रति विनेय जन की सर्वज्ञ-बुद्धि जत्र निश्चित हो गई,तथ ऐसे विनेय की दृष्टि से भगवान् ने 'न तथ्य' का उपदेश किया। पूर्वोक्त सर्व तथ्य नहीं है। क्योंकि तथ्य यह है जिसका अन्यथाभाव नहीं होता। किन्तु संस्कारों का अन्यथाभाव है। क्योंकि वे प्रतिक्षण विनाशी है। इस प्रकार भावों का अन्यथाभाव है, वे तथ्य नहीं हैं। पुनः भगवान् ने 'तथ्यम् अतथ्यम्' दोनों का उपदेश दिया है । बालजन की अपेक्षा से 'सर्व तभ्यम्' और श्रार्यज्ञान की अपेक्षा से 'सर्वम् अतथ्यम्' उपदेश है; क्योंकि आर्यनन की अपेक्षा से उनकी उपलब्धि नहीं होती।