पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६३३

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ऊमाशिमच्याय गृहीत होना चाहिये । गृहीत होने पर बीज नित्य होगा, क्योंकि वह अविनष्ट होगा | ऐसी अवस्था में शाश्वतवाद की प्रसक्ति होगी, जिससे कर्म-फल का अभाव सिद्ध होगा। कर्म-फल के अभाव से समस्त दोष-राशि मापन होगी। इसलिए जो बीज है, वहीं अंकुर है। यह युक्त नहीं है। किन्तु इससे बीब से अंकुर की भिन्नता भी सिद्ध नहीं होती, अन्धया बीन के बिना भी अंकुर का उदय मानना पड़ेगा। ऐसी दशा में अंकुर के अवस्थान काल में बीज अनुच्छिन्न ही रहेगा। इससे सत्कार्यवाद के समस्त दो। श्रारतित होंगे । इस प्रकार कार्य कारणरूप नहीं है, और उससे भिन्न भी नहीं है । इमलिए कारण न उच्छिन्न है और न शाश्वत' । काल का निषेध कालवादी काल-प्रय की विचमि मानता है। उत्पन्न होकर निरुद्ध होने वाले भाव अतीत है, उत्पन्न होकर निरुद्ध न होने वाला वर्तमान तथा जिसका स्वरूप लन्ध नहीं हुना वह अनागत हैं। माध्यमिक कालत्रय-वाद का खण्डन करता है, क्योंकि प्रत्युत्पन्न और अनागत की सिद्धि यदि अतीत की अपेक्षा से है तो वे दोनों अवर ही अतीव होंगे। जिमकी जहाँ असत्ता होती है, वह उसकी अपेक्षा नहीं करता जैसे:--तैय को सिकना की, पुत्र को धन्ध्या की अपेक्षा नहीं है। अतः वर्तमान और अनागत को यदि अतीत की अपेक्षा है,तो वे अतीत-काल अतीत के समान ही विद्यमान होंगे, और उनमें वस्तुतः अनिता होगी । प्रत्युत्पन्न और अनागत यदि अतीत में नहीं हैं तो उनकी अपेक्षा करके उनकी स्थिति नहीं होगी। अतीत से अनपेक्ष प्रत्युत्पन्न की सत्ता स्पष्ट सिद्ध है। जिस प्रकार प्रत्युत्पन्न और अनागत अतीत की अपेक्षा करें या न करें उभयतः उनकी सिद्धि नहीं होती, बैंस ही अतीत और अनागत प्रत्युत्पन्न की अपेक्षा करें या न करें, उनकी सत्ता सिद्ध नहीं होगी; तथा प्रत्युत्पन्न और अतीत अनागत की अपेक्षा करें या न करें, वे सिद्ध न होंगे। इस प्रकार माध्यमिक काल-त्रय का खण्डन करके भावों की सत्ता का खण्डन करते हैं। कालवादी क्षण, लव, मुहूर्त, दिवस, रात्रि, अहोरात्र आदि से काल का परिमाण मानता है। किन्तु माध्यमिक जब काल का ही खण्डन करता है, तो उसकी परिमाणवत्ता का प्रश्न कहां है । माध्यमिक कहता है कि क्षणादि से अतिरिक्त कूटस्थ काल सिद्ध हो, तो वह क्षणादि से पहीत हो, किन्तु ऐसा नहीं होता। यदि वादी कहे कि यद्यपि नित्य काल नहीं है, किन्तु रूपादि से अतिरिक्त और रूपादि संस्कारों से प्रशस्त होने वाला काल है, जो क्षण अादि से अभिहित होता है। किन्तु भावों की अपेक्षा से काल नहीं सिद्ध होगा, क्योंकि किसी भी प्रकार भावों को सिद्धि नहीं होती । इस का उपपादन पहले किया गया है। १. प्रतीय मगद् भवति महि तावत्तदेव तत् । न चान्यदपि तत्तस्मानोकिन्न नापि शाश्वतम् ॥ (७८.