पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६३६

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बौर-धर्म-दर्शन पुनः संभव-विभव क्षयधर्मो भावों का होता है या अक्षय-धर्मा ? दोनों ही प्रकार प्रसिद्ध है। चयशील पदार्थों का संभव नहीं होगा, क्योंकि आय का विरोधी संभव है। अक्षय पदार्थों का भी संभव नहीं होगा, क्योंकि अक्षय धर्म भाव से विलक्षण हैं, उनका संभव नहीं होगा। इसी प्रकार क्षय वा अक्षय पदार्थ का विभव भी नहीं हो सकता । संभव-विभव केवल इसलिए नहीं है कि उनके आश्रयभूत पदार्थ प्रतीत होते हैं। वस्तुतः भाव कहाँ है ? बिना भाव के संभव-विभव नहीं होंगे, और बिना संभव-विभव के भाव नहीं होंगे। वादी कहता है कि श्रापकी सूक्ष्मक्षिका व्यर्थ है। क्योंकि आबाल-गोपाल पदार्थों के संभव-विभव में प्रतिपन्न हैं। प्राचार्य कहते हैं कि लोक जिस जिसकी उपलब्धि करता है, उन सब का अस्तित्व नहीं सिद्ध हो जाता; अन्यथा स्वप्नादि-दृष्टि भी सत्य होती। संभव-विभव का कोई म्वरूप नहीं है, किन्तु लोक उसमें मोह से प्रतिपन्न है । यदि कोई भाव हो तो बताना होगा कि वह भाव से उत्पन्न है या अभाव से ? दोनों पक्षों में भाव को उत्पत्ति सिद्ध नहीं होती। पहले भावों की स्वतः परतः अादि की उत्पत्ति का निषेध किया जा चुका है। प्राचार्य भाववादी सर्वास्तिवादियों पर एक गंभीर आरोप लगाते हैं। कहते हैं कि जो सुगतानुगामी भावों का सद्भाव मानते हैं, वे उच्छेदवाद या शाश्वतवाद में श्रापतित होते हैं, क्योंकि भाववादी का भाव नित्य होगा या अनित्य ? नित्य होगा, तो शाश्वतवाद निश्चित है; अनित्य होगा, तो उच्छेदवाद । सर्वास्तिवादी इन आरोपों से बचने के लिए कहता है कि हम हेतु-फल के उत्पाद- विनाश के प्रवाह को संसार कहते हैं । यदि हेतु निरुद्ध हो, किन्तु उससे फल न उत्पन्न हो, तो उच्छेदवाद होगा। हेतु निरुद्ध न हो, प्रत्युत स्वरूपेण अवस्थित हो तो शाश्वतवाद होगा। किन्तु हमारे मत में उत्पाद-विनाश का वह प्रवाह संमत है, जिसमें हेतु-फल अविच्छिन्न क्रम से है। अतः हम पर ये दोष नहीं लगते। प्राचार्य कहते हैं कि वादियों पर ये दोष स्पष्ट ही लगते है, क्योंकि वादी के मत में फल की उत्पत्ति हेतु-क्षण हेतु होकर निरुद्ध हो जाता है। किन्तु उसका पुन: उत्पाद नहीं होता, यह उच्छेदयाद है । और हेतु का स्वभावतः सद्भात्र है, तो उसका असद्भाव न होगा। अतः शाश्वतवाद होगा। ... भावानावते भावो भावोऽमावास जायते । नामावलायतेऽभावोऽमावो मावास बावते ।।